________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
५६२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभष्यम् [गुणेऽनुमाने हेत्वाभास
न्यायकन्दली भावमसम्भावयतो भवत्येवान्यतरपक्षे स संशयः । सत्यं भवत्येव, न तु विरुद्धाव्यभिचारिधर्मद्वयसन्निपातात्, किन्तु वस्तुत्वात् । यन्मूर्तत्वामूर्तत्वाभ्यां दृष्टसाहचर्य मनसि प्रतीयमानं स्मृतिद्वारेण तयोरुपस्थापनं करोति ।
तुल्यबलत्वमभ्युपगम्य विरुद्धाव्यभिचारिणः संशयहेतुत्वं निरस्तम्, न त्वनयोस्तुल्यबलत्वमस्ति, अन्यतरस्यानुमेयोद्देशस्य 'अमूर्त मनः' इत्यस्यागमेन तदभावादणु मनः' ( अ० ७ भा० १ सू० २३ ) इति सूत्रेण बाधितत्वात् । अथेदं सूत्रमप्रमाणम् ? व्यापकमेव मनः, तदा मनःसद्भावे न किञ्चित् प्रमाणमस्तीत्यमूर्त मनः अस्पर्शत्वादिति हेतुराश्रयासिद्धः । अथ युगपज्ज्ञानानुत्पत्त्या सिद्धं मनस्तदा मिग्राहकप्रमाणबाधितो युगपज्ज्ञानानुत्पत्तर्मनसोऽणु
विरुद्धाव्यभिचारी मतत्व और अमर्त्तत्व रूप दोनों धर्मों का सन्निवेश है । वह तो इस वस्तुस्थिति के कारण होता है कि क्रियावत्व और अस्पर्शवत्त्व रूप जो दोनों धर्म मूर्तत्व और अमूर्त्तत्व के साथ क्रमशः घटादि और आकाशादि में ज्ञात हो चुके हैं, उन दोनों की जब मन में प्रतीति होती है, तो वे मूर्त्तत्व और अमूर्तत्व इन दोनों को मनरूप धर्मी में उपस्थित कर देते हैं।
विरुद्धाव्यभिचारी दोनों हेतुओं को समानबल का मान कर उनमें संशय को हेतुता का खण्डन किया गया है। किन्तु यथार्थ में वे दोनों समानबल के हैं ही नहीं, क्योंकि उन दोनों में से पहिला 'अनुमेयोद्देश' अर्थात् 'अमत्तं मनः' यह प्रतिज्ञावाक्य 'तदभावादणु मनः' इस सूत्र रूप आगमन से बाधित होने के कारण 'आगमविरोधी' है। अगर उक्त सूत्र को प्रमाण न मानें, तो फिर मन (आकाशादि की तरह) व्यापक द्रव्य ही होगा, ऐसी स्थिति में मन की सत्ता में कोई प्रमाण न रहने के कारण ( अमूतं मनः, अस्पर्शवत्त्वात् ) यह हेतु आभयासिद्ध होगा। अगर एक ही समय दो ज्ञानों की उत्पत्ति न होने के कारण मन की सिद्धि मान लें. तो मन का अमूर्तस्त्र रूप साध्य मन रूप धर्मी के ज्ञापक 'युगपज्ज्ञानानुत्पत्ति' रूप प्रमाण से ही बाधित होगा, क्योंकि, 'युगपज्ज्ञानानुत्पत्ति' अर्थात् एक ही समय दो ज्ञानों की अनुत्पत्ति तभी उपपन्न हो सकती है जब कि मन अणु ( मूर्त ) हो, क्योंकि मन अगर व्यापक होगा तो एक ही समय सभी इन्द्रियों के साथ सम्बद्ध हो सकेगा, जिससे एक ही क्षण में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति सम्भव हो जाएगी। 'अनुमेयोद्देश' अर्थात् ज्ञान में आगम के विरोध से कौन सा दोष होगा? इसी प्रश्न का समाधान 'अयं तु विरुद्धभेद इति' इस भाष्य वाक्य से किया गया है। अर्थात् 'अनुमेयोद्देशोऽविरोधी प्रतिज्ञा'इस प्रतिज्ञा लक्षण में 'अविरोधि' पद के उपादान से जिन प्रत्यक्षादि विरुद्ध प्रतिज्ञाभासों का निराकरण किया गया है, उन्हीं (निराकृत प्रतिज्ञाभासों में से ही) 'अमत्तं मनः' यह आगमविरोधी प्रतिज्ञा भी है। अतः यहाँ प्रतिज्ञाभास ही दोष है, सन्दिग्ध रूप हेत्वाभास नहीं। प्रकृत भाष्य वाक्य में प्रयुक्त 'तु' शब्द के द्वारा यह व्यक्त किया
For Private And Personal