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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्य
हेत्वाभास
प्रशस्तपादभाष्यम् अयमप्रसिद्धोज्नपदेश इति वचनादवरुद्धः। ननु चायं विशेषः संशयहेतुरभिहितः शास्त्रे तुल्यजातीयेष्वर्थान्तरभूतेषु विशेषस्योभयथा अनध्यवसित नाम का हेत्वाभास है। सूत्रकार ने इसे 'अप्रसिद्धोऽनपदेशोऽसन् सन्दिग्धश्चानपदेशः ( अ०३ आ० १ सू०१५ ) इस सूत्र के द्वारा संग्रह किया है ।
(प्र०) ( सपक्ष और विपक्ष में न रहनेवाले एवं केवल पक्ष में ही रहनेवाले ) हेतु को 'तुल्यजातीयेष्वर्थान्तरभूतेषु विशेषस्योभयथादृष्टत्वात्' ( अ० २ आ० २ सू० २२ ) इस वैशेषिक सूत्र में संशय का कारण कहा गया है,
न्यायकन्दली क्रियाजननयोग्येन रूपेण पूर्वमनभिव्यक्तस्य पश्चादभिव्यक्तिरेवोत्पत्तिरिति सांख्याः, तेन तेषामुत्पत्तेरिति हेतोर्न स्वतोऽसिद्धता।
अयमनध्यवसितो हेत्वाभासः केन वचनेन सूत्रकृता संगृहीत इत्याहअययप्रसिद्धोऽनपदेश (अ० ३ आ० १ सू० १५) इति । अनैकान्तिकवदसाधारणो धर्मः संशयं करोति, तेनास्य 'सन्दिग्धश्चानपदेशः' इत्यनेन संग्रहो युक्तो न पुनरप्रसिद्धवचनेनेत्यभिप्रायेणाह-ननु चेति । तुल्यजातीयेष्वर्थान्तरभूतेष्विति पञ्चम्यर्थे सप्तमी । पदार्थानां विशेषस्तुल्यजातीयेभ्यो भवति, अर्थान्तरभूतेभ्यश्च भवति । यथा पृथिव्यां गन्धवत्त्वं विशेषो द्रव्यान्तरेभ्योऽपि स्याद् गुगकर्मभ्यश्च भवति । शब्दे च श्रावणत्वं विशेषो दृश्यते। तत् किं उत्पत्ति रूप हेतु में असत्कार्यवादियों को स्वतः असिद्धता का आक्षेप करना उचित नहीं है, क्योंकि (जल हरणादि) विशेष कार्यों के उपयोगी रूप से अनभिव्यक्त (किन्तु सर्वदा विद्यमान घटादि ) कार्यों को अभिव्यक्ति ही सांख्याचार्यों के मत से कार्यों की उत्पत्ति' है।
इस 'अनध्यवसित' हेत्वाभास का संग्रह सूत्रकार ने किस सूत्र ( वचन ) से किया है ? इसी प्रश्न का समाधान 'अयमप्रसिद्धोऽनपदेशः' भाष्य के इस वाक्य के द्वारा किया गया है। अनैकान्तिक ( सव्यभिचार ) हेत्वाभास की तरह यह असाधारण ( अनध्यवसित) हेत्वाभास भी ( साध्य ) संशय को उत्पन्न करता है, अतः इसका संग्रह 'सन्दिग्धश्चानपदेशः' सूत्र के इस अंश के द्वारा ही होना उचित है, 'अप्रसिद्धवचन' अर्थात् 'अप्रसिद्धोऽन. पदेशः' इस अंश के द्वारा नहीं। 'तुल्यजातीयेष्वर्थान्त रभूतेषु' इस वाक्य के दोनों पदों में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पञ्चमी विभक्ति के अर्थ में किया गया है। ( अभिप्राय यह है कि) पदार्थों का अपने सजातीय और विजातीय दोनों प्रकार के पदार्थों की अपेक्षा 'विशेष' अर्थात् असाधारण धर्म होता है। जैसे कि पृथिवी का गन्धवत्त्व रूप 'विशेष' उक्त दोनों ही प्रकार से पृथ्वी का विशेष है, क्योंकि गन्धवत्त्व पृथिवी के (द्रव्यत्व रूप से ) सजातीय जलादि द्रव्यों में भी नहीं है, और उसके विजातीय गुणादि पदार्थों में भी नहीं है। इसी प्रकार शब्द में भी श्रावणत्व (श्रवणेन्द्रिय से गृहीत होना ) रूप 'विशेष' है। उसके प्रसङ्ग
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