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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमाने निदर्शन
प्रशस्तपादभाष्यम् कारणम् । अन्यथा षट्स्वपि पदार्थेषु संशयप्रसङ्गात् । तस्मात् सामान्यप्रत्ययादेव संशय इति ।
द्विविधं निदर्शनं साधयेण वैधम्र्येण च । तत्रानुमेयसामान्येन लिङ्गसामान्यस्यानुविधानदर्शनं साधयनिदर्शनम् । तद्यथा जाता है। उक्त सूत्र के द्वारा यह नहीं कहा गया है कि विशेष ( आसाधारण ) धर्म संशय का कारण है। अगर ऐसी बात न हो तो ( शब्द में गुणत्व के संशय की तरह) छः पदार्थों में भी अविराम संशय की आपत्ति होगी। अतः सामान्य (साधारण ) धर्म के ज्ञान से ही संशय होता है (असाधारण धर्म के ज्ञान से नहीं)।
( अन्वय ) साधर्म्य एवं ( व्यतिरेक ) वैधर्म्य भेद से निदर्शन ( उदाहरण ) भी (१) साधर्योदाहरण और (२) वैधर्योदाहरण भेद से दो प्रकार का है। इनमें अनुमेय ( साध्य ) सामान्य के साथ लिङ्ग ( हेतु ) सामान्य
न्यायकन्दली कर्मणि च दृष्टः। शब्दे च श्रावणत्वं विशेषो दृश्यते, तस्माद्विशेषत्वाद द्रव्यादिविषयः संशयः। यदि चासाधारणमपि रूपं संशयकारणम्. तदा षट्स्वपि पदार्थेषु संशयप्रसङ्गः ? सर्वेषामेव तेषामसाधारणधर्मयोगित्वात, ततश्च संशयस्याविरामप्रसङ्ग इत्याह- अन्यथेति । उपसंहरति-तस्मादिति । साधारणो धर्मो विरुद्ध विशेषाभ्यां सह दृष्टसाहचर्यः, तयोः स्मरणं शक्नोति कारयितुमतस्तद्दर्शनादेव संशयो भवति, नासाधारणधर्मदर्शनादित्युपसंहारार्थः ।
निदर्शनस्वरूपनिरूपणार्थमाह-द्विविधं निदर्शनं साधयेण वैधम्यण चेति। साध्यसाधनयोरनुगमो निदर्यते येन वचनेन तद्वचनं साधर्म्यविपक्षों से अर्थात् भिन्नजातीयों से, दोनों से व्यावृत्तिबुद्धि का उत्पादन देखा जाता है। इस का फलितार्थ क्या हुआ ? यही कि द्रव्य, गुण और कर्म तीनों में ही 'विशेष' देखे जाते हैं, एवं शब्द में भी भावणत्व रूप विशेष देखा जाता है, अतः संशय होता है कि 'शब्द द्रव्य है ? अथवा गुण है ? किं वा कर्म है ?' अगर असाधारण धर्म भी संशय का कारण हो तो फिर छः पदार्थों में ही संशय की आपत्ति होगी, क्योंकि वे सभी असाधारण धर्म से युक्त है। जिससे संशय की अनन्त धारा की आपत्ति होगी। यही बात 'अन्यथा' इत्यादि ग्रन्थ से आचार्य ने कही है। 'तस्मात्' इत्यादि से इस प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं। इस उपसंहार ग्रन्थ का आशय है कि परस्परविरुद्ध दो विशेष धर्मों के साथ दृष्ट होने के कारण साधारण धर्म ही उन परस्पर विरुद्ध दोनों धर्मों की स्मृति को उत्पन्न कर सकता है। अतः साधारण धर्म के ज्ञान से ही संशय होता है, असाधारण धर्म के ज्ञान से नहीं ।
'द्विविधं निदर्शनं साधम्र्येण वैधhण च' भाष्य का यह वाक्य 'निदर्शन' के स्वरूप को समझाने के लिए लिखा गया है। 'साध्य और हेतु का एक जगह रहना'
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