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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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यश्चानुमेये विद्यमानस्तत्समानासमानजातीययोरसन्नेव सोऽन्यतरासिद्धोऽनध्यवसायहेतुत्वादनध्यवसितः, यथा सत्कार्यमुत्पत्तेरिति ।
( ४ ) कथित अन्यतरासिद्ध हेत्वाभास ही यदि अनुमेय ( पक्ष ) में रहे किन्तु सपक्ष और विपक्ष में न रहे, तो वही 'अनध्यवसाय' रूप ज्ञान का हेतु होने से 'अनध्यवसित' नाम का हेत्वाभास कहा जाता है । जैसे कि ( कार्यं सत् उत्पत्तिमत्त्वात्' इस अनुमान का उत्पत्तिमत्त्व ) हेतु
न्यायकन्दली
परिमाणत्वे सति सम्भवात् व्यापकत्वे मनसो युगपत्समस्तेन्द्रियसम्बन्धाद्युगपदेव ज्ञानानि प्रसज्यन्ते ।
अनुमेयोद्देशस्यागमविरोधः किं दूषणमत आह-अयं तु विरुद्धभेद इति । अयमागमविरुद्धोऽनुमेयोद्देशोऽविरोधी प्रतिज्ञेत्यविरोधिग्रहणेन निर्वाततानां प्रत्यक्षादिविरुद्धानां प्रतिज्ञाभासानां प्रभेद एव, नायं सन्दिग्धो हेत्वाभासः । किन्तु विरुद्धप्रभेद एवेति तु शब्दार्थः ।
अनध्यवसित इत्यसाधारणो हेत्वाभासः कथ्यते । तं व्युत्पादयतियश्चानुमेये विद्यमानस्तत्समानासमानजातीययोरित्यादि । सर्वं कार्यमुत्पादात् पूर्वमपि सदिति साध्यते, उत्पत्तेरिति हेतुः सांख्यानाम् । सति सपक्षे व्योमादावसति विपक्षे गगनकुसुमादावभावान्नैकत रपक्षाध्यवसायं करोति । विशिष्टार्थ
गया है कि ( अमूर्त्तत्व का साधक अस्पर्शवत्त्व हेय ) विरुद्ध हेत्वाभास का ही एक प्रभेद है ( सन्दिग्ध नहीं ) ।
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'असाधारण' नाम का हेत्वाभास ही ( इस शास्त्र में ) 'अनध्यवसित' शब्द से कहा गया है । 'यश्चानुमेये विद्यमानस्तत्समानजातीययोः' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा उसी ( असाधारण ) को समझाते हैं । 'सभी कार्य अपनी उत्पत्ति से पहिले भी 'सत्' अर्थात् विद्यमान ही है इसको सिद्ध करने के लिए सांख्याचार्यगण 'उत्पत्तेः' इस हेतुवाक्य का प्रयोग करते हैं । इस वाक्य के द्वारा उपस्थापित यह 'उत्पत्ति' रूप हेतु 'असाधारण ( या अनध्यवसित ) नाम का हेत्वाभास है, क्योंकि ( सदा से विद्यमान ) आकाश रूप सपक्ष में भी यह हेतु नहीं है, एवं ( सर्वदा असत् ) आकाशकुसुमादि में भी यह 'उत्पत्ति' रूप हेतु नहीं है, क्योंकि आकाश और आकाशकुसुम इन दोनों से किसी की उत्पत्ति नहीं होती ), अत: यह हेतु ( कार्यों की उत्पत्ति से पूर्व सत्त्व और असत्त्व ) इन दोनों मे से किसी भी पक्ष का साधन नहीं कर सकता । गगनादि नित्य पदार्थों की तरह घटादि अनित्य पदार्थ भी अगर पहिले से ही हैं, तो फिर 'उत्पत्ति' रूप हेतु कहाँ रहेगा ? कहीं पर निश्चित न रहने के कारण सांख्याचार्यों के इस
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