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न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमाने हेत्वाभास
प्रशस्तपादभाष्यम्
स्यान तु संशयहेतुत्वम्, न च तयोस्तुस्यबलवच्चमस्ति, अन्यतरस्यानुमेयोद्देशस्यागमबाधितत्वादयं तु विरुद्धभेद एव ।
के ज्ञान समान बल के हैं, इससे इतना ही होगा कि दोनों में से कोई भा निश्चय का उत्पादन न कर सकेगा। इससे ( निश्चय की इस अनुपत्पदता ) से उनमें संशय की कारणता नहीं आ सकती । वस्तुतः मूर्त्तत्त्व का साधक क्रियावत्त्व और अमूर्त्तत्व का साधक अस्पर्शवत्त्व ये दोनों हेतु समानबल के हैं भी नहीं, क्योंकि इन दोनों में से एक ( अस्पर्शवत्त्व ) का साध्य ( अमूर्त्तत्त्व ) मन में तद्भावादणु मन:' ( अ० ६ ० १ सू-२३ ) इस वैशेषिकसूत्र रूप आगम से बाधित है । अतः ( जिसे पूर्वपक्षी दूसरे प्रकार का सन्दिग्ध हेत्वाभास कहते हैं ), वह विरुद्ध हेत्वाभास का ही एक प्रभेद है ।
न्यायकन्दली
मानसम्भवः । द्वितीयेन प्रतिपक्षे उपस्थाप्यमाने प्रथमस्य साध्यसाधकत्वाभावादिति चेत् ? यदि द्वितीयवत् प्रथममप्यनुमानलक्षणोपपन्नम्, न प्रथमस्या - साधकत्वम् । तदसाधकत्वेऽन्यत्राप्यनुमाने के आश्वासः ? वस्तुनो द्वैरूप्याभावादसाधकत्वमिति चेत् ? वस्तु द्विरूपं न भवतीति केनैतदुक्तम् ? यथा हि प्रमाणमथं गमयति, तदेव हि तस्य तत्त्वम् ।
धर्मों का ज्ञान ही नहीं है तो फिर उस धर्मविहीनता के प्रयोजक हेत्वाभास का ही उद्भावन करना चाहिए, ( उस हेतु को दूषित करने के लिए ) प्रमथानुमान ( के विरोधी अनुमान) के प्रयोग से क्या प्रयोजन ? (प्र०) 'विरुद्धं न व्यभिचरति' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'विरुद्धाव्यभिचारी' शब्द का यह अर्थ है कि जो हेतु अपने विरोधी अनुमान की उत्पत्ति को न रोक सके वही हेतु 'विरुद्धाव्यभिचारी' हैं । तदनुसार पूर्व में प्रयुक्त हेतु हा "विरुद्धाव्यभिचारी है । इस हेतु में यही 'दोष' है कि इसके रहते भी दूसरे हेतु से विपरीत अनुमिति की उत्पत्ति होती है, क्योंकि द्वितीय ( प्रति ) हेतु के द्वारा जब विरोधी पक्ष की उपस्थिति हो जाती है, तो अपने साध्य के साधन करने की क्षमता पहिले हेतु से जाती रहती है । ( उ० ) अगर दूसरे हेतु की तरह पहले हेतु में अनुमान के उत्पादक ( सपक्षसत्त्वादि ) सभी लक्षण हैं, तो फिर पहले हेतु अपने साध्य के साधन में अक्षम ही नहीं है, क्योंकि सपक्षसत्त्वादि रूपी बलों के रहते हुए भी यदि प्रथम हेतु में साध्य के साधन का सामर्थ्य न माना जाय, तो और अनुमान प्रमाणों में हो कैसे विश्वास किया जा सकेगा कि वह अपने साध्य का साधन करेगा ही ? अगर यह कहें कि ( प्र०) चूँकि कोई भी वस्तु ( विरुद्ध ) दो प्रकार की नहीं हो सकती, अतः एक ( पहिले ) हेतु को साधक मान लेते हैं । ( उ० ) यह किसने कहा कि एक वस्तु ( विरुद्ध ) दो प्रकार की नहीं हो सकती ? प्रमाण से जिस प्रकार की वस्तु की सिद्धि होगी, वही प्रकार उस
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