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करणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली कुतश्चिनिमित्ताद्विशेषानुपलम्भे सति संशयो भवति। दृष्टं चेति चशब्देन पूर्वमदृष्टमपि पदार्थ दृष्टवद् दृष्टाभ्यां स्थाणुपुरुषान्तराभ्यां समानं दृष्ट्वा संशय इत्यर्थः ।
सूत्रान्तरं च यथादृष्टमयथादृष्टमुभयथादृष्टमित्येकर्मिविशेषानुस्मरणकृतं संशयं दर्शयति । पूर्वदृष्टमेव पुरुषं 'यथादृष्टम्' येन येनावस्थाविशेषण दृष्टं मुण्डं जटिलं वा, तस्मादयथादृष्टमन्येनान्येनावस्थाभेदेन दृष्टम्, कालान्तरे दृष्ट्वा, अवस्थाविशेषमपश्यतः स्मरतश्चैवं तस्यैव प्राक्तनीमवस्थितामुभयोमवस्था किमयमिदानीं मुण्डः किं वा जटिल इति संशयः स्यादिति सूत्रार्थः ।
न तु विरुद्धाव्यभिचारी संशयहेतुः, प्रयोगाभावात् । यदि तावदाद्यस्य हेतोर्यथोक्तलक्षणत्वमवगतं तदा तस्माद्योऽर्थोऽवधारितः स तथैवेति न द्वितीयस्य प्रयोगः, प्रतिपत्तिबाधितत्वात् । अथायं यथोक्तलक्षणो न भवति, तदानीमयमेव दोषो वाच्यः, कि प्रत्यनुमानेन ? विरुद्धं प्रत्यनुमानं न व्यभिचरति, नातिवर्तत इति विरुद्धाव्यभिचारी प्रथमो हेतुस्तस्यायमेव दोषो यद्विपरीतानुरूप असाधारण धर्म को न समझने के कारण संशय उत्पन्न होता है । 'दृष्टञ्च' इस वाक्य के 'च' शब्द से भी यही अर्थ व्यक्त होता है कि जो पदार्थ ( स्थाणु या पुरुष में) पहिले से ज्ञात नहीं है, अगर उसका भी दूसरे स्थाणु वा दूसरे पुरुष की तरह ज्ञान होता है, तो उस ज्ञान के बाद भी संशय की उत्पत्ति होती है ।
'यथा दृष्टमयथाष्टमुभयथादृष्टम्' इस दूसरे सूत्र के द्वारा वह संशय दिखलाया गया है कि जिसकी उत्पत्ति एक धर्मी में ( अनेक धर्मों की) स्मृति से होती है । पहिले देखा हुआ पुरुष ही अगर 'यथादृष्ट' हो, अर्थात् जिन जिन विशेष अवस्थाओं से-जटी अथवा मुण्डी प्रभृति अवस्थाओं से युक्त होकर जो पूर्व में देखा गया हो, वही पुरुष अगर उससे 'अयथादृष्ट अर्थात् ( उन पूर्वदृष्ट अवस्थाओं से ) दूसरी दूसरी अवस्थाओं से यक्त रूप में दूसरे समय देखा जाता है, एवं ( उसकी वर्तमान ) विशेष प्रकार की अवस्था की उपलब्धि नही होती है, एवं पूर्व की जटी और मुण्डी दोनों अवस्थाओं का स्मरण होता है, तो इस स्थिति में इसी संशय की उत्पत्ति होती है कि यह 'जटाधारी है मुण्डित-मस्तक ?
(विरुद्धाव्यभिचारी हेतु में संशय की कारणता सूत्रों से नहीं कही गयी है इतनी ही नहीं वस्तुतः) विरुद्धाव्यभिचारी हेतु संशय का कारण हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसका प्रयोग ही सम्भव नहीं है। ('मूर्त मनः अस्पर्शवत्त्वात्, अमूर्त मनः क्रियावत्त्वात्' इत्यादि स्थलों में) साध्य के ज्ञापकत्व के प्रयोजक जितने जिन प्रकार के (सपक्षसत्त्वादि धर्म) हैंपहिले हेतु में उन सबों का ज्ञान है, तो फिर इस हेतु से जो निश्चित होगा, वह उसी प्रकार का होगा। अतः ( उस विरुद्ध साध्य के साधन के लिए) दूसरे हेतु का प्रयोग ही नहीं हो सकेगा, क्योंकि वह प्रथम हेतुजनित प्रथम साध्य की अनुमिति (प्रतिपत्ति) से बाधित है। ऐसी स्थिति में अगर प्रथम हेतु में साध्य ज्ञान के प्रयोजक (सपक्षसत्त्वादि)
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