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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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५५७
प्रागभावः ? यस्यार्थस्य यः प्रध्वंसः, तस्यार्थस्य स्वरूपस्थितिरेव तत्प्रध्वंसस्य प्रागभावः । यथा वस्तुत्पत्तिरेव तत्प्रागभावस्य विनाश:, तथा प्रध्वंसोत्पत्तिरेव तत्प्रागभावस्य विनाशः । यदसद्भूतं तस्य कथमभाव इति न परिचोद्यम्, कारणसामर्थ्यस्यापर्यनुयोज्यत्वात् ।
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rasaranaissa च गोरभाव इतरेतराभावः । स च सर्वत्रैको नित्य एव, पिण्डविनाशेऽपि सामान्यवत् पिण्डान्तरे प्रत्यभिज्ञानात् । यथा सामान्यमदृष्टवशादुपजायमानेनैव पिण्डेन सह सम्बद्धयते, नित्यत्वं च स्वभावसिद्धम्, तथेतरेतराभावोऽपि । इयांस्तु विशेष:- पिण्डग्रहणमात्रेण सामान्यग्रहणम्, इतरेतराभावग्रहणं तु प्रतियोगिसापेक्षम्, पररूपनिरूपणीयत्वात् ।
अत्यन्ताभावो यदसतः प्रतिषेध इति । इतरेतराभाव एवात्यन्ताभाव इति चेत् ? अहो राजमार्ग एव भ्रमः ? इतरेतराभावो हि स्वरूपसिद्धयोरेव उस प्रध्वंस का प्रागभाव है। जिस प्रकार प्रतियोगिभूत वस्तु की उत्पत्ति ही उसके प्रागभाव का विनाश है, उसी प्रकार प्रध्वंस की उत्पत्ति हो उसके प्रागभाव का विनाश हैं । यह अभियोग करना युक्त नहीं है कि ( प्र० ) जो ( प्रागभाव ) स्वयं अभाव स्वरूप है, उसका अभाव कैसे निष्पन्न होगा ? ( उ० ) क्योंकि कारणों का सामथ्यं सभी अभियोगों से बाहर है ।
( ३ ) गो में अश्व का अभाव और अश्व में गो का जो अभाव है, वही 'इतरेतराभाव' हैं । वह समवाय की तरह अपने सभी आश्रयों में एक ही है, और नित्य भी हैं, क्योंकि आश्रयीभूत एक वस्तु के विनष्ट हो जाने पर भी उसी प्रकार की दूसरी वस्तु में उसका भान होता है । जैसे कि ( घटत्व ) सामान्य के आश्रयीभूत एक घट का नाश हो जाने पर भी दूसरे घट में उसका प्रत्यभिज्ञान होता है । एवं जिस प्रकार घटादि वस्तुओं के उत्पन्न होते ही अदृष्ट रूप कारणवश सामान्य उनके साथ सम्बद्ध हो जाता है । एवं जिस प्रकार सामान्य में नित्यत्व स्वभावतः प्राप्त है । उसी प्रकार ये सभी बातें इतरेतराभाव ( अन्योन्याभाव या भेद ) में भी समझना चाहिए । ( सामान्य और इतरेतराभाव इन दोनों में उक्त सादृश्यों के रहते हुए भी ) इतना अन्तर है कि केवल आश्रय का ज्ञान होते ही सामान्य का ज्ञान हो जाता है । किन्तु इतरेतराभाव को समझने के लिए ( उसके आश्रय के अतिरिक्त ) उसके प्रतियोगी के ज्ञान की भी अपेक्षा होती है । क्योंकि सभी अभाव को समझने के लिए प्रतियोगी रूप दूसरी वस्तु के ज्ञान को अपेक्षा होती है ।
( प्र० ) अत्य
राजमार्ग में ही
सर्वथा अविद्यमान वस्तु का जो निषेध वही 'अत्यन्ताभाव' है । न्ताभाव इतरेतराभाव से भिन्न कोई वस्तु नहीं है । ( उ० ) यह तो भूल होने जैसी बात है, क्योंकि जहाँ प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों की सत्ता रहती हैं, किन्तु परस्पर एक के तादात्म्य का दूसरे में निषेध किया जाता है, वहाँ इतरेतराभाव माना जाता है । किसी सिद्ध आश्रय में सर्वथा अविद्यमान किन्तु केवल बुद्धि में आरो