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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमाने हेत्वाभास-.
प्रशस्तपादभाष्यम् मुक्तम्, तस्य वचनमपदेशः : यथा क्रियावत्वाद् गुणवत्त्वाच्चेति, तथा च तदनुमेयेऽस्ति तत्समानजातीये च सर्वस्मिन् गुणवत्त्वमसर्वस्मिन् क्रियावत्वम् । उभयमप्येतदद्रव्ये नास्त्येव । तस्मात् तस्य वचनमपदेश इति सिद्धम् ।
एतेनासिद्धविरुद्धसन्दिग्धानध्यवसितवचनानामनपदेशत्वमुक्तं भवति। इस प्रकार के हेतु का प्रतिपादक वाक्य ही 'अपदेश' है। जैसे कि ( 'द्रव्यं वायुः' इस प्रतिज्ञा के उपयुक्त) 'क्रियावत्त्वात् गुणवत्त्वाच्च' ये वाक्य । इनमें गुणवत्त्व हेतु तो वायुरूप द्रव्य में भी है, एवं और सभी द्रव्यों में है । क्रियावत्त्व हेतु वायु में रहने पर भी ( एवं सभी द्रव्यों में न रहने पर भी) मूर्तद्रव्यों में तो है ही। किन्तु ये दोनों ही विपक्षीभूत सभी अद्रव्य पदार्थों में नहीं हैं, अतः इससे सिद्ध होता है कि चूंकि ये दोनों ही हेतु के उक्त लक्षणों से युक्त हैं, अतः इनके बोधक उक्त वाक्य 'अपदेश' हैं।
इससे ( अर्थात् हेतु के अनुमेयसम्बद्धत्वादि लक्षणों के कहने से ) (१) असिद्ध, (२) विरुद्ध, ( ३ ) संन्दिग्ध. ( ४ ) अनध्यवसित (हेत्वाभासों में ) अनपदेशत्व अर्थात हेत्वाभासत्व कथित हो जाता है। इनमें (१) उभयासिद्ध, (२)
न्यायकन्दली नास्त्येव, तस्योभयस्य वचनं क्रियावत्त्वाद् गुणवत्वादित्येवं रूपमपदेश इति हेतुरिति सिद्धं व्यवस्थितं निर्दोषत्वात् ।।
एतेन अपदेशलक्षणकथनेन अर्थादसिद्धविरुद्धसन्दिग्धानध्यवसितवचनानामनपदेशत्वमुक्तं भवति । अनुमेयेन सहचरितमित्यनेनासिद्धवचनस्यानपदेशत्व
हैं। अतः इससे सिद्ध होता है कि इन दोनों के बोधक 'क्रियावत्त्वात्' और 'गुणवत्त्वात्' इस आकार के दोनों वाक्य 'अपदेश' हैं, अर्थात् हेतु रूप अवयव हैं, क्योंकि इस निर्णय में कोई दोष नहीं है।
एतेन' अर्थात् अपदेश के 'अनुमेयेन सहचरितम्' इत्यादि लक्षण के कहने से ही असिद्धवचन, विरुद्धवचन, सदिग्धवचन और अनध्यवसितवचनों में 'अनपदेशत्व' अर्थात् हेत्वाभासत्व का भी अर्थतः कथन हो जाता है। इस प्रसङ्ग में ऐसा विभाग समझना चाहिए कि हेतु के लक्षण में प्रयुक्त 'अनुमेयेन सहचरितम्' इस पद से 'असिद्धवचन' मे हेत्वाभासत्व का आक्षेप होता है । एवं 'तत्समानजातीये च नास्ति' इस वाक्य
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