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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमाने हेत्वाभास
प्रशस्तपादभाष्यम् विद्यमानोऽपि तत्समानजातीये सर्वस्मिन्नास्ति, तद्विपरीते चास्ति, स विपरीतसाधनाद् विरुद्धः, यथा यस्माद् विषाणी तस्मादश्व इति । भास है ( क्योंकि तम यदि द्रव्य होगा तभी वह पार्थिव हो सकता है, किन्तु तम में द्रव्यत्व ही सिद्ध नहीं है, चूँकि वह अभाव रूप है, अतः द्रव्यत्व विशिष्ट तम रूप अनुमेय असिद्ध होने के कारण उसमें पार्थिवत्व के साधन के लिए प्रयुक्त कृष्णरूपवत्त्व हेतु अनुमेयासिद्ध है)।
(२) जो हेतु अनुमेय अर्थात् साध्य में एवं उसके सजातीयों में भी न रहे एवं अनुमेय के विपरीत वस्तुओं में रहे वह हेतु साध्य के विपरीत वस्तु का साधक होने के कारण विरुद्ध' नाम का हेत्वाभास है। जैसे गो में ( अभेद सम्बन्ध से ) अश्व के साधन के लिए प्रयुक्त विषाण ( सींग) हेतु ( विरुद्ध नाम का हेत्वाभास है ), क्योंकि अश्व रूप अनुमेय में विषाण हेतु
न्यायकन्दली प्रतिवादिनः सन्देहासिद्धः। एवमाश्रयोऽपीति योजनीयम् । विशेषणासिद्धादयः, अन्यतरासिद्ध उभयासिद्धेष्वेवान्तर्भवन्तीति पृथङ् नोक्ताः।।
_ विरुद्ध हेत्वाभासं कथयति-यो ह्यनुमेय इति । यदा कश्चिद् वनान्तरिते गोपिण्डे विषाणमुपलभ्य 'अयं पिण्डोऽश्वो विषाणित्वात' इति साधयति, तदा विषाणित्वमश्वजातीये पिण्डान्तरेऽविद्यमानमश्वविपरीते गवि महिष्यादौ च विपक्षे विद्यमानं व्याप्तिबलेनाश्वत्वविरुद्धमनश्वत्वं साधयदभिमतसाध्यविपरीतसाधनाद् के प्रसङ्ग में भी समझना चाहिए। अथवा जिस तरह कोई हेतु वादी के लिए ही विपर्ययासिद्ध और प्रतिवादी के लिए ही सन्दिग्धा सिद्ध होता है, वैसे ही आश्रयासिद्ध के प्रसङ्ग में भी समझना चाहिए । 'विशेषणासिद्ध' प्रभृति हेत्वाभास कथित अन्यतरासिद्ध और उभयासिद्धों में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं, अतः उनका अलग से उल्लेख नहीं किया गया।
___यो ह्यनुमेये' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा 'विरुद्ध' नाम के हेत्वाभास का निरूपण करते हैं। जिस समय कोई पुरुष वन में छिपे हुए गो रूप अवयवी के केवल सींग को देखकर इस अनुमान वाक्य का प्रयोग करता है कि 'यह दीखनेवाला पिण्ड घोड़ा है, क्योंकि इसे सींग है उस समय यह 'विषाणित्व' हेतु विरुद्ध नाम का हेत्वाभास होता है, क्योंकि अश्व रूप पक्ष के सजातीय गदहे प्रभृति में विषाणित्व हेतु नहीं है, एवं अश्व के विपरीत गो महिषादि विपक्षों में विषाणित्व हेतु विद्यमान हैं । इस व्याप्ति के कारण विवाणित्व हेतु वन में दीखनेवाले उक्त पिण्ड में अश्वत्व के विरुद्ध अश्वभिन्नत्व का ही साधक होने के कारण 'विरुद्ध' कहलाता है। यह उदाहरण कुछ ही विपक्षों में
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