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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
नेऽवयव
प्रशस्तपादभाष्यम् मानम् । पञ्चावयवेनैव वाक्येन संशयितविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां परेषां स्वनिश्चितार्थप्रतिपादनं परार्थानुमानं विज्ञेयम् । अपने निश्चित अर्थ विषयक संशय या विपर्यय अथवा अव्युत्पत्ति से युक्त पुरुषों को पञ्चावयव वाक्य के द्वारा ही उस अर्थ को समझाने के लिए उक्त ( अपने निश्चित ) अर्थ का ( पञ्चावयव वाक्य के द्वारा ) प्रतिपादन ही 'परार्थानुमान' समझना चाहिये।
न्यायकन्दली मित्येके। व्यवयवमित्यपरे । तत्प्रतिषेधार्थमेवकारकरणम्-पञ्चावयवेनैवेति । प्रतिपाद्येऽर्थे यस्य संशयोऽस्ति स संशयितः, यस्य विपर्ययज्ञानं स विपरीतः, यस्य न संशयो न विपर्ययः किन्तु स्वज्ञानमात्रं सोऽव्युत्पन्नः, त्रयोऽपि ते प्रतिपादनार्हाः, तत्त्वप्रतीतिविरहात् ।।
यो यानि पदानि समुदितानि प्रयुङ्क्ते, स तत्पदार्थसंसर्गप्रतिपादनाभिप्रायवानिति सामान्येन स्वात्मनि नियमे प्रतीते पश्चात् पदसमूहप्रयोगाद् वक्तुस्तपदार्थसंसर्गप्रतिपादनाभिप्रायावगतिद्वारेण पदेभ्यो वाक्यार्थानुमानं न तु पदार्थे. भ्यस्तत्प्रतीतिः। नहि पदार्थो नाम प्रमाणान्तरमस्ति मीमांसकानाम् । नापि वाक्यार्थप्रतिपादनाय पदैः प्रत्येकमभिधीयमानानां पदार्थानां वाक्यार्थप्रतिपादनदो ही अवयव मानते हैं। अन्य सम्प्रदाय के लोग तीन अवयव मानते हैं। इन दोनों मतों का खण्डन करने के लिए ही 'एवकार' से युक्त 'पञ्चावयवेनैव' यह वाक्य लिखा गया है। प्रतिपादन के लिए अभिप्रेत अर्थ में जिसे संशय रहता है, वही पुरुष प्रकृत में 'संशयित' शब्द का अर्थ है। एवं जिसे उक्त अर्थ का विपर्यय रहता है, वही व्यक्ति विपरीत ( या 'विपर्यस्त' शब्द का अर्थ ) है। जिस पुरुष को प्रकृत अर्थ का न संशय ही है, न विपर्यय ही, केवल स्वज्ञान ही है, वही पुरुष प्रकृत में अव्युत्पन्न शब्द का अर्थ है। इन तीन प्रकार के पुरुषों को ही विषयों का समझना उचित है, क्योंकि इन्हें साध्य का तत्त्व ज्ञात नहीं रहता है।
'जो पुरुष जिन अनेक पदों का साथ साथ प्रयोग करता है उसका यह अभिप्राय भी अवश्य ही रहता है, कि उनमें से प्रत्येक पद का अर्थ परस्पर सम्बद्ध होकर ज्ञात हो। अपने स्वयं इत नियम को समझने के बाद ही पद समूह ( रूप) वाक्य के प्रयोग से वक्ता का यह अभिप्राय ज्ञात होता है कि वाक्य में प्रयुक्त प्रत्येक पद के अर्थ परस्पर सम्बद्ध होकर ज्ञात हों। वक्ता के इस अभिप्राय विषयक ज्ञान के द्वारा पदों से ही वाक्यार्थ का ज्ञान होता है, पद के अर्थों से वाक्यार्थ की प्रतीति नहीं होती है, क्योंकि मीमांसकों के मत में भी पदार्थ नाम का कोई प्रमाण नहीं है। यह कहना भी सम्भब नही है कि (प्र.) वाक्य में प्रयुक्त प्रत्येक पद के द्वारा उपस्थित सभी
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