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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
५६७ न्यायकन्दली हेतुः प्रयुज्यते, तस्य सिद्धत्वात्, अपि तु कस्मिश्चिमिणि प्रतिनियते, तस्मिन्ननुपन्यस्यमाने निराश्रयो हेतुर्न प्रवर्तेत । तस्याप्रवृत्तौ न साध्यसिद्धिरतः प्रतिज्ञया मिग्राहक प्रमागमुपदर्शयन्त्या हेतोराश्रयो धर्मी सन्निधाप्यते, इत्याश्रयोपदर्शनद्वारेण हेतुं प्रवर्तयन्ती प्रतिज्ञा साध्यसिद्धरङ्गम् । तथा च न्यायभाष्यम्-"असत्यां प्रतिज्ञायामनाश्रया हेत्वादयो न प्रवर्तेरन्" इति । उपनयादेव हेतोराश्रयः प्रतीयत इति चेन्न, असति प्रतिज्ञावचने तस्याप्यप्रवृत्तः । उपनयः साधनस्य पक्षधर्मतालक्षणं सामर्थ्यमुपदर्शयति । न प्रत्येतुः प्रथममेव साधनं प्रत्याकाङ्क्षा, किन्तु साध्ये, तस्य प्रधानत्वात्। आकाक्षिते साध्ये
अर्थात प्रतिपादन के लिए ही प्रतिज्ञा वाक्य का उपयोग है। अभिप्राय यह है कि जिस किसी आश्रय में साध्य के साधन के लिए हेतु का प्रयोग नहीं होता, क्योंकि सामान्यतः किसी स्थान में साध्य तो सिद्ध है ही, अतः किसी विशेष धर्मी में साध्यसिद्धि के लिए ही हेतु का प्रयोग होता है ( जहाँ पहिले से साध्य सिद्ध नहीं है और वहां साध्य का साधन इष्ट है ) वह (विशेष प्रकार का धर्मी) यदि प्रतिपादित न हो तो फिर बिना आश्रय (विषय ) के होने के कारण हेतु की प्रवृत्ति ही नहीं होगी । हेतु की प्रवृत्ति के बिना साध्य की सिद्धि भी न हो सकेगी । अतः प्रतिज्ञा पक्ष रूप धर्मी के ज्ञापक प्रमाण को उपस्थित करती हुई हेतु के आश्रय रूप धर्मी को उसके समीप ले आती है । इस आश्रय के प्रदर्शन के द्वारा ही हेतु की प्रवृत्ति में निमित्त होने के कारण प्रतिज्ञा भी साध्य-सिद्धि का उपयोगी अङ्ग है। जैसा कि न्यायभाष्यकार ने कहा है कि 'यदि प्रतिज्ञा न रहे तो फिर हेतु प्रभृति अवयवों की प्रवृत्ति ही न हो सकेगी। (प्र०) उपनय से ही हेतु के उस आश्रय (विषय) की प्रतीति होगी? (उ०) प्रतिज्ञा के न रहने पर उपनय की भी प्रवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि हेतु के पक्षधर्मता-रूप सामर्थ्य का प्रदर्शन ही उपनय का काम है। किन्तु साध्य के प्रधान होने के कारण ज्ञाता पुरुष को पहिले साध्य के प्रसङ्ग में ही जिज्ञासा होती है, साधन के सामर्थ्य के प्रसङ्ग में नहीं।
एक 'न' कार का रहना आवश्यक हैं। एवं पूर्ववाक्य के अन्त में भी प्रतिज्ञाया उपयोगः' इस अर्थ को समझाने के लिए भी कोई शब्द चाहिए। प्रकृत ग्रन्थ में जो 'प्रतिज्ञाने' शब्द है, उसका भी कुछ ठीक अर्थ नहीं बैठता है। अतः यह तय करना पड़ा कि 'प्रतिज्ञाने इस पद में 'ए' कार प्रमाद से लिखा गया है। अवशिष्ट प्रतिज्ञान' भी एक शब्द नहीं है, किन्तु 'प्रतिज्ञा' और 'न' ये दो अलग शब्द हैं। जिनमें पहिला पहिले वाक्य के अन्त में और दूसरा दूसरे वाक्य के आदि में मान लिया गया है। तदनुसार प्रकृत पाठ इस प्रकार निष्पन्न होता है 'अपदेशो हेतुः, तस्य विषयमाश्चयमापादयितुं प्रतिज्ञा। न खलु यत्र क्वचन साध्यसाधनाय हेतुः प्रयज्यते, तस्य सिद्धत्वात् । अपि तु कस्मिंश्चिद्धमिर्माण प्रतिनियते" इसी पाठ के अनुसार अनुवाद किया गया है।
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