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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणेऽनुमानेऽवयव
प्रशस्तपादभाष्यम् विरोधी, घनमम्बरमित्यनुमानविरोधी, ब्राह्मणेन सुरा पेयेत्यागमअनुमानविरोधी प्रतिज्ञावाक्य का उदाहरण है 'घनमम्बरम्' । 'ब्राह्मणेन सुरा पेया' यह वाक्य आगमप्रमाण से विरुद्ध है । वैशेषिकशास्त्र को मानने
न्यायकन्दली कृतकत्वादित्यस्यैव । अथाबाधितविषयत्वे सति त्रैरूप्यमविनाभाव इत्यभिप्रायेणोच्यते-अविनाभूतस्य नास्ति बाधेति, तदोमित्युच्यते। किन्त्वबाधितविषयत्वमेव रूपं कथयितं प्रत्यक्षाद्यविरोधिग्रहणं कृतम्।
प्रत्यक्षविरोधः किं पक्षस्य दोषः ? किं वा हेतोः ? न पक्षस्य, धर्मिणस्तादवस्थ्यात् । नापि हेतोः, स्वविषये तस्य सामर्थ्यात्, विषयान्तरे सर्वस्यैवासामर्थ्यात् । किन्तु प्रतिपादयितुरिदं दूषणम्, योऽविषये साधनं प्रयुङ्क्ते । यदि प्रतिज्ञातार्थप्रतीतियोग्यताविरहस्तत्प्रतिपादनम् ? योग्यताविरहश्च दूषणमभिमतम् ? तदा कर्मकरणयोरप्यस्ति दोषः। . घनमम्बरमित्यनुमानविरोधी। येन प्रमाणेनाकाशमवगतं तेनैवाकाशस्य नित्यत्वं निरवयवत्वं च प्रतिपादितम्, अतो निविडावयवमम्बरमिति प्रतिज्ञा मिग्राहकानुमानविरुद्धा । (क्योंकि कृतकत्व वह्नि में है और वायु में भी है एवं आकाश में नहीं है ) और अग्निरूप पक्ष में अनुष्णत्व रूप साध्य का अभाव स्वरूप बाध भी है। यदि जो हेतु बाधित न होकर पक्ष सत्त्वादि तीनों रूपों से युक्त हो उन हेतु को ही साध्य का व्याप्य या अविनाभूत मानकर यह कहते हों कि व्याप्ति से युक्त हेतु कभी बाधित नहीं हो सकता, तो हम इस के उत्तर में 'हाँ' कहेंगे ( अर्थात इस प्रकार का हेतु कभी बाधित नहीं होता) किन्तु व्याप्ति के लिए जिम अबाधितत्व या अबाधितविषयत्व को आप प्रयोजक मानते हैं, हेतु में उस अबाधितविषयत्व की सत्ता की आवश्यकता को समझाने के लिए ही प्रतिज्ञालक्षण में 'अविरोधि' पद का उपादान किया गया है।
यह 'प्रत्यक्ष विरोध' किसका दोष है ? पक्ष का या हेतु का ? पक्ष का दोष तो वह हों नहीं सकता, क्योंकि पक्ष तो ज्यों का त्यों रहता है। हेतु का भी वह दोष नहीं हो सकता क्योंकि अपने (व्यापक ) साध्य रूप विषय के ज्ञापन की क्षमता तो उसग है ही? दूसरे हेतु के साध्य को समझाने की क्षमता तो किसी भी हेतु में नहीं होती। अतः यह प्रत्यक्षादि विरोध रूप दोष वस्तुतः प्रयोग करनेवाले पुरुष का है, जो ऐसे साध्य के ज्ञापन के लिए ऐसे हेतु का प्रयोग करता है, जिस साध्य के ज्ञापन की क्षमता जिस हेतु में नहीं होती है ।
घ'नमम्बरमित्यनुमानविरोधी' जिस प्रमाण से आकाश के अस्तित्व का ज्ञान होता है, उसी प्रमाण से उसमें नित्यत्व एवं अवयवशून्यत्व भी निश्चित है, अतः 'आकाश के अवयव घन हैं, अर्थात् परस्पर निविड़ संयोग से युक्त है, यह प्रतिज्ञा आकाश रूप धर्मी के ज्ञापक अनुमान के ही विरुद्ध है।
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