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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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स एव चोभयात्मायं गम्यो गमक एव च ।
असिद्धेनैकदेशेन गम्यः सिद्धो न बोधकः ॥ इति ।
प्रतिज्ञाया उदाहरणमाह-- द्रव्यं वायुरिति । यो वायुं प्रतिपद्यमानोऽपि तस्य द्रव्यत्वं न प्रतिपद्यते, तं प्रति साधयितुमिष्टेन द्रव्यत्वेन विशिष्टस्य वायोरभिधानं प्रतिज्ञा क्रियते द्रव्यं वायुरिति । अविरोधिग्रहणस्य तात्पर्यं कथयति — अविरोधिग्रहणात् प्रत्यक्षानुमानाभ्युपगत स्वशास्त्रस्ववचनविरोधिनो निरस्ता भवन्तीति । वादिना साधयितुमभिप्रेतोऽर्थः साध्य इत्युच्यते । प्रत्यक्षादिविरुद्धोऽपि कदाचिदनेन भ्रमात् साधयितुमिष्यते, तद् यद्यविशेषेणानुमेयोद्देशः प्रतिज्ञेत्येतावन्मात्रमुच्यते, प्रत्यक्षादिविरुद्धमपि वचनं प्रतिज्ञा स्यात् । न चेयं प्रतिज्ञा, तदर्थस्य साधयितुमशक्यत्वात्, अतोऽविरोधिग्रहणं कृतम् । न विद्यते प्रत्यक्षादि..
धर्मी के दो भेद हैं, पहिला है साध्य रूप धर्म से युक्त, जो पक्ष कहलाता है । दूसरा है केवल धर्मी, जो 'धर्मी' ही कहलाता है । इनमें पहिला ( पहिले से सिद्ध न होने के कारण ) 'गम्य' है अर्थात् साध्य है । दूसरा 'गमक' अर्थात् ( अपने ज्ञान के द्वारा अथवा पक्षधर्मता सम्पादन के द्वारा ) 'गमक' अर्थात साध्य ज्ञान का कारण है । अर्थात् धर्मी के दो स्वरूप हैं, एक साध्य से सम्बद्धवाला, दूसरा केवल अपने स्वरूपवाला, इनमें पहिले स्वरूप से वह् 'गम्य' अर्थात् साध्य है, ( क्योंकि उस रूप से पहिले वह सिद्ध नहीं है ) दूसरे स्वरूप से वह 'गमक' अर्थात् स्वज्ञान के द्वारा अथवा पक्षधर्मता सम्पादन के द्वारा साधक है ।
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'द्रव्यं वायु:' इस वाक्य के द्वारा प्रतिज्ञा का उदाहरण कहा गया है । जो व्यक्ति वायु को समझता है, किन्तु उसे द्रव्य नहीं समझता, उसको वायु में द्रव्यत्व को समझाना अभिप्रेत है। उसके लिए द्रव्यत्व से युक्त वायु को समझाने के लिए 'द्रव्यं वायुः ' ऐसी प्रतिज्ञा की जाती है । 'अविरोधिग्रहणात्प्रत्यक्षानुमानाभ्युपगतस्वशास्त्रस्ववचनविरोघिनो निरस्ता भवन्ति' इस वाक्य के द्वारा ( प्रतिज्ञा के लक्षण वाक्य में ) 'अविरोधि ' शब्द के प्रयोग का हेतु दिखलाया गया है । वादी को जिस वस्तु का साधन अभिप्रेत होता है, उसे 'साध्य' कहते हैं । ऐसे भी वादी हैं जो भ्रान्ति से वशीभूत होकर प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित अर्थों के साधन के लिए भी प्रवृत्त हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में यदि सामान्य रूप से 'अनुमेयोद्देशः प्रतिज्ञा' ( अर्थात् अनुमेय के बोधक सभी वाक्य प्रतिज्ञा हैं ) ऐसा ही प्रतिज्ञा का लक्षण किया जाय, तो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध ( 'वह्निरनुष्णः' इत्यादि वाक्य भी प्रतिज्ञा हो जाएँगे, किन्तु उस प्रकार के वाक्य प्रतिज्ञा नहीं हैं, क्योंकि उनके द्वारा कथित विषय का साधन सम्भव नहीं है । अतः ऐसे वाक्यों में प्रतिज्ञात्व के निराकरण के लिए ही भाष्यकार ने प्रतिज्ञा लक्षण में 'अविरोधि '
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