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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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५६३
शब्दस्य ककुदादिमदर्थे नियमो गृहीतो न क्रियाकरणादिष्विति तेषां प्रत्येकं व्यभिचारेऽपि गोशब्दस्य प्रयोगदर्शनात् । तेनायं गोशब्दः श्रूयमाणोऽभ्यासपाटवादव्यभिचरितसाहचर्यं ककुदादिमदर्थमात्रं स्मारयति न क्रियाकरणादीनीति चेत् ? एवं तहि यस्य शब्दस्य यत्रार्थे साहचर्यनियमो गृह्यते तत्रैव तस्याभिधायकत्वं नान्यत्रेत्यनन्विताभिधानेऽपि समानम् । न च स्मरणमनुमानवत् साहचर्यनियममपेक्ष्य प्रवर्तत इत्यपि सुप्रतीतम्, तद्धि संस्कारमात्र निबन्धनं प्रतियोगिमात्र दर्शनादपि भवति । तथाहि – धूमदर्शनादग्निरिव रसवत्यादिप्रदेशोऽपि स्मर्यते, तद् यदि गोशब्दः सहभावप्रतीतिमात्रेणैव गोपिण्डं स्मारयति, गोपिण्डप्रतियोगिनोऽपि पदार्थान् कदाचित् स्मारयेत् । नियमेन तु गोपिण्डमेव स्मारयंस्तद्विषयं वाचकत्वमेवावलम्बते, तथासत्येव नियमसम्भवात् । किञ्च यथा वाक्ये पदानामन्विताभिधानं तथा पदेऽपि प्रकृतिप्रत्यययोरन्विताभिधानमिच्छन्ति
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णादि के साथ अन्वित होनेवाले ) ककुदादि से युक्त अर्थ को समझाने के लिए गो शब्द का प्रयोग देखा जाता है। इस प्रकार सुना गया यह गो शब्द बार बार प्रयुक्त होने से प्राप्त पटुता के कारण ककुदादि से युक्त जिस अर्थ के साथ उसका व्यभिचार कभी उपलब्ध नहीं होता है, केवल उसी अर्थ का स्मरण करा सकता है, क्रियाओं का या करणादि अर्थों का नहीं, क्योंकि उनके साथ गो शब्द का कभी प्रयोग होता है कभी नहीं । ( उ० ) तब तो समान रूप से अनन्विताभिधानवादी की ही तरह यह कहिए कि "जिस अर्थ को समझाने के लिए जिस शब्द का प्रयोग नियम से होता है, केवल उसी अर्थ में उस शब्द की शक्ति है" । दूसरी बात यह है कि जिस प्रकार अनुमान के द्वारा उसी अर्थ का ग्रहण होता है, जिसका साहचर्य हेतु में नियमतः गृहीत होता है । उस प्रकार स्मृति को साहचर्य नियम की अपेक्षा नहीं होती है, संस्कार से उत्पन्न होनेवाली वस्तु है, अतः साहचर्य के किसी एक भी उत्पन्न हो सकती है । जैसे कि धूम के वह्नि का तरह वह्नि के आश्रय महानसादि प्रदेशों का भी स्मरण शब्द से ककुदादि से युक्त गो रूप अर्थ का स्मरण यदि का सामानाधिकरण्य उक्त गो रूप अर्थ के साथ है, तो
क्योंकि वह तो केवल
देखने से
सम्बन्धी को देखने पर स्मरण होता है, उसी होता है । इस प्रकार गो इस लिए मानेंगे कि गो शब्द फिर गो शब्द से कदाचित् आश्रयीभूत गोष्ठादि का भी स्मरण
(
के आश्रयभूत महानसादि की तरह ) गो के हो सकता है । 'गो पद से नियमतः गोपिण्ड का ही स्मरण हो, इसके लिए किसी भी दूसरी रीति से गो पिण्ड में गो शब्द को शक्ति को हो हेतु मानना पड़ेगा, क्योंकि उस नियम की उपपत्ति किसी दूसरी रीति से सम्भव नहीं है । दूसरी यह भी बात है कि जिस प्रकार वाक्य में प्रयुक्त प्रत्येक पद की शक्ति दूसरे अर्थ में अन्वित स्वार्थ में ही मानने की इच्छा आप लोगों की है, उसी प्रकार यह भी आप लोगों का अभिप्रेत होगा कि पद के शरीर में प्रयुक्त होनेवाले प्रकृति और प्रत्यय रूप दोनों अंशों में से प्रत्येक