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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽभावान्तर्भाव
न्यायकन्दली स्मर्यते, तस्मानासीद् देवदत्तः, तदस्मरणस्य प्रकारान्तरेणासम्भवादिति समानम् । श्लोकस्य तु पदान्युच्चारणानुरोधात् क्रमेण पठयन्ते, नेकज्ञानसंसर्गाणि । तेषु यत्र तु बहुतरः संस्कारो जातस्तत् स्मर्यते, नापरमिति नास्त्यनुपपत्तिः।
एवमुपलभ्यमानस्यापि वस्तुनो यत् प्राक्तनाभावज्ञानं प्रागिदमिह नासीदिति ज्ञानम्, तदपि प्रतियोगिनः प्राक्तनास्तित्वे स्मर्यमाणे तत्सत्तास्मृत्यभावादनुमानम्।
ये तु स्मृत्यभावमप्यभावं प्रमाणमाचक्षते तेषाम् "अभावोऽपि प्रमाणाभावः" इति भाष्यविरोधः, "प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते" इत्यादिवात्तिकविरोधश्चेत्यलं बहुना ।
ये पुनरेवमाहुः-अभावरूपस्य प्रमेयस्याभावान्न साध्वी तस्य प्रमाणचिन्तेति। त इदं प्रष्टव्याः-नास्तीति संविदः किमालम्बनम् ? यदि न किञ्चित् ?
नहीं होता है, अतः उस समय देवकुल में देवदत्त नहीं थे, क्योंकि उस समय देवकुल में देवदत्त के अभाव के बिना उसकी उपपत्ति नहीं हो सकती। किसी श्लोक के एक अंश की स्मृति और दूसरे अंश की देवदत्त की उक्त अस्मृति की स्थिति ही भिन्न है, क्योंकि श्लोक के प्रत्येक पद अलग अलग पढ़े जाते हैं, एवं उनके ज्ञान भी अलग अलग क्रमशः ही उत्पन्न होते हैं, अत: श्लोक रूप वाक्य के कोई भी अनेक अंश एक ज्ञान के द्वारा गृहीत नहीं होते। सुतराम् श्लोक के प्रत्येक पद के ज्ञान से उत्पन्न होनेवाला संस्कार अलग अलग है। इन संस्कारों में से जिन पदों के संस्कारों में दृढ़ता अधिक होती है, उनके द्वारा उन पदों का स्मरण होता जाता है, और जिन पदों के संस्कार दुर्बल होते हैं, उनका स्मरण नहीं होता है । अतः श्लोक के प्रसङ्ग में भी कोई अनुपपत्ति नहीं है।
इसी प्रकार वर्तमान काल में जिस वस्तु को उपलब्धि है, उसके पूर्वकालिक अभाव की जो इस आकार की प्रतीति होती है कि 'यह पहिले नहीं था', वह ( प्रतीति ) भी अनुमान ही है। क्योंकि इस अभाव के प्रति योगी का पूर्वकालिक अस्तित्व के स्मत होने पर भी अधिकरण में उसकी सत्ता की स्मृति न होने से ही उक्त प्राक्तन अभाव की प्रतीति उत्पन्न होती है।
( मीमांसकों का) जो सम्प्रदाय स्मृति के अभाव को भी 'अभाव' प्रमाण मानता है, उसको "अभावोऽपि प्रमाणाभावः” इस शाबरभाष्य और "प्रमाणपञ्चकं यत्र" इत्यादि उसके वात्तिक दोनों के विरोध का सामना करना पड़ेगा ?
जो कोई यह कहते हैं कि (प्र०) अभाव नाम का कोई अलग प्रमेय ही नहीं है, अतः उसके प्रमाण की बात ही अनुचित है। (उ०) उनसे यह पूछना चाहिए
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