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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽभावान्तर्भाव
न्यायकन्दली नापि स्मृत्यारूढा व्याप्रियते, पूर्वमसंविदितत्वात् । नानुपलब्धिः प्रमाणान्तरसंवेद्या, अभावरूपत्वात् । अनुपलब्ध्यन्तरापेक्षायां चानवस्था स्यात् । तस्मादियमगृहीतैवेन्द्रियवदर्थपरिच्छेदिकेति राधान्तः, तथा सति कुतस्तस्याः स्मरणम् ? अनुभवाभावात् । ____ अथ मतम्- देवकुले देवदत्तानुपलम्भो देवदत्तोपलम्भेन विनिवर्त्यते, न च देशान्तरगतस्य तदुपलम्भो जातः, तस्मादस्त्येव तदनुपलम्भः। यदि त्ववस्थान्तरमापन्नः, न चावस्थाभेदे वस्तुभेद इति । अस्तु तहि तावदिहैवम् । यत्र तु पूर्व प्रतियोगिस्मरणाभावाद् वस्त्वभावो न गृहीतः, पश्चात् कालान्तरे वस्तुग्रहणादिहेदानीं नासीदिति प्राक्तनाभावज्ञानम्, तत्र कः प्रती
यह कहना भी सम्भव नहीं है कि (प्र०) स्मृति के द्वारा उपस्थापित अनुपलब्धि से ही वहाँ अभाव का बोध होगा, (उ.) क्योंकि अनुपलब्धि का पहिले अनुभव न रहने के कारण उसकी स्मति सम्भव नहीं है। अनुपलब्धि चूंकि अभाव रूप है, अतः प्रत्यक्षादि पाँचों (भावबोधक) प्रमाणों में से किसी से भी उसका बोध सम्भव नहीं है । दूसरी अनुपलब्धि से यदि प्रकृत प्रमाणभूत अनुपलब्धि का अनुभव मानें, तो फिर कारणीभूत उस अनपलब्धि के अनुभव के लिए तीसरी अनुपलब्धि की आवश्यकता होगी, जो अन्त में अनवस्था में परिणत होगी। तस्मात् यही कहना पड़ेगा कि जिस प्रकार इन्द्रिय से प्रत्यक्ष के उत्पादन में उसके ज्ञात होने की आवश्यकता नहीं होती है, उसी प्रकार अनुपलब्धि रूप प्रमाण भी स्वयं बिना ज्ञात हुए हो केवल अपनी सत्ता के द्वारा ही अपने अभाव रूप अर्थ के निश्चय का उत्पादन करता है। तस्मात् पूर्व में अनपलब्धि का अनुभव न रहने के कारण उसकी स्मृति किस प्रकार हो सकती है ?
यदि यह कहिए कि (प्र.) देवकुल में देवदत्त की जो अनुपलब्धि है वह केवल देवदत्त की उपलब्धि से ही हट सकती है। देवकुल से आनेवाला पुरुष जब दूसरे देश में चला आता है, उस समय उसे देवदत्त की उपलब्धि तो हो नहीं जाती। अतः ( जिस समय वह दूसरे के पूछने पर देवकुल में देवदत्त के अभाव का प्रतिपादन करता है) उस समय देव कुल में देवदत्त की अनुपलब्धि बनी हुई है। मान लिया कि उस समय की अनुपलब्धि से इस समय की अनुपलब्धि दूसरी अवस्था में है, किन्तु कोई भी वस्तु केवल अवस्था के बदल जाने से दूसरी वस्तु नहीं हो जाती। (उ०) यह मान भी लिया जाय कि उक्त रीति से देवकुल में देवदत्त के कथित अभाव के प्रतिपादन की इस प्रकार उपपत्ति की जा सकती है, तथापि जहाँ प्रतियोगी का स्मरण न रहने के कारण किसी एक अधिकरण में पहिले उस प्रतियोगी का अभाव ज्ञात न हो सका, फिर कुछ काल बीत जाने पर उसी अधिकरण में उस प्रतियोगी रूप वस्तु का ग्रहण हुआ। ऐसे अधिक रण में उस समय उसी वस्तु के पूर्वकालिक अभाव का
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