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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहित
न्यायकन्दली अत्रोच्यते-पदानि वाक्यार्थप्रतिपादनाय प्रयुज्यन्ते। तानि प्रत्येक पदार्थसंस्पर्शात्मकं वाक्यार्थं प्रतिपादयितुमशक्नुवन्त्यपर्यवसितव्यापारत्वाद् एकार्थकारीणि पदान्तराण्यपेक्षन्ते । यत्र पुनरमीभिर्वाक्यार्थः प्रतिपादितः, तत्रैषां शब्दान्तरापेक्षा नास्त्येव, स्वव्यापारस्य पुतत्वात् । यस्तैरुपपादितोऽर्थः स नोपपद्यत इति चेत् ? नोपपादि, नार्थस्याविरोधोपपादनमपि शब्दस्य व्यापारः, किन्तु प्रतिपादनम् । तच्चानेनासन्निहितेऽपि रात्रिवाक्ये कृतमेव । प्रतीयते हि दिवाऽभोजनवाक्यात् पीनस्याभोजनम्, निःसन्दिग्धाऽभ्रान्ता चात्रेयं प्रतीतिः, अन्यथार्थापत्तेरपि प्रवृत्त्यभावात्। निश्चितस्यैव हि पीनस्य दिवाऽभोजनप्रमाणसिद्धस्यानुपपत्तिर्न युक्तेति तदुपपादनमर्थ्यते, सन्दिग्धे विपरीतत्वेन चावधारिते तस्मिन् कस्योपपत्तयेऽर्थान्तरकल्पना स्यात ? न चार्थयोः पर.
इस प्रसङ्ग में हम लोगों का कहना है कि वाक्य के अर्थ को समझाने के लिए हो पदों का प्रयोग किया जाता है। वाक्य में प्रयुक्त होनेवाले पदो के अर्थ ही परस्पर उपयुक्त सम्बन्ध से युक्त होकर 'वाक्यार्थ' कहलाते हैं। इस विशिष्ट वाक्यार्थ को कोई एक पद नहीं समझा सकता, क्योंकि पदों में केवल अपने अपने ही अर्थ को समझाने का सामर्थ्य होता है। अतः एक पद अपने अर्थ के साथ और अर्थों के सम्बन्ध के लिए दूसरे पदों की अपेक्षा रखता है। जहाँ जितने ही पदों से वाक्यार्थ विषयक बोध का सम्पादन हो जाता है, वहाँ उनसे भिन्न पदों की अपेक्षा नहीं होती है। इन पदों के द्वारा उपस्थित अर्थ में यदि अनुपपन्नता या विरोध है तो इसको छुड़ाने का दायित्व पदों पर नहीं है, क्योंकि अपने अपने अर्थों का प्रतिपादन करना ही पदों का काम है, उनके विरोध को मिटाना नहीं। 'पीनो दिवा न भुङ्क्ते' यह वाक्य 'रात्रौ भुङ्क्ते' इस वाक्य का सांनिध्य न पाने पर भी दिन को भोजन न करनेवाले में पीनत्व रूप अपने अर्थ का बोध रूप काम तो कर ही दिया है, क्योंकि 'दिवा न भुङ्क्ते' इस वाक्य से दिन में भोजन न करनेवाले में पीनत्व की अभ्रान्त एवं निःसन्दिग्ध प्रतीति हो जाती है। यदि "दिवा' वाक्य से दिन को भोजन न करनेवाले में पीनत्व को अभ्रान्त और निःशङ्क प्रतीति न हो तो फिर आगे उससे अर्थापत्ति की प्रवृत्ति भी क्योंकर होगी ? दिन में न खाने पर भी देवदत्त में निश्चित पीनत्व की उपपत्ति ठीक नहीं बैठती है, उसकी उपपत्ति के लिए ही उसको प्रमाण सिद्ध रूप में समझाना आवश्यक होता है। दिन को न खाने पर भी देवदत्त में जो पीनता है, वह यदि इस स्थिति में सन्दिग्ध या विपरीत ही हो तो फिर उसकी उपपत्ति ही अपेक्षित नहीं है। अतः किसकी उपपत्ति के लिए रात्रिभोजन रूप दूसरे अर्थ की कल्पना आवश्यक होगी ? किन्हीं दो अर्थों में परस्पर विरोध है, केवल इसी लिए 'उनको प्रतीति ही नहीं होती' यह कहना
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