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५३४
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमानेऽर्थापत्त्यन्तर्भाव
प्रशस्तपादभाष्यम् दर्शनार्थादर्थापत्तिर्विरोध्येव, श्रवणादनुमितानुमानम् ।
प्रमाणों के द्वारा ज्ञात अर्थ से थर्थों की जो अवगति ( दृष्टार्थापत्ति ) होती है वह विरोधि ( व्यतिरेकी ) अनुमान ही है। वाक्य के श्रवण से जो अर्थावगति (श्रुतार्थापत्ति) होती है, वह भी अनुमितानुमान ही है।
न्यायकन्दली सोऽपि गवयशब्दवाच्य एवेति सामान्येन ज्ञानमनुमानमेव । प्रत्यक्षे गवये सादृश्यज्ञानं त्रैलोक्यव्यावृत्तपिण्डबुद्धिरपि प्रत्यक्षफलम्। यच्च तद्गतत्वेन संज्ञासंज्ञिसम्बन्धानुसन्धानम्, तदपि सादृश्यग्रहणाभिव्यक्तपूर्वोपजातसामान्य. प्रवृत्तगोसदृशगवयशब्दवाच्यत्वज्ञानजनितसंस्कारजत्वादेकत्रोपजातसामान्यविषयसङ्केतज्ञानसंस्कारकृततज्जातीयपिण्डान्तरविषयतच्छब्दवाच्यत्वानुसन्धानवत् स्मरणमेव । एवं हि तदायमनुसन्धत्ते 'अस्यैव तन्मया पूर्वमेव तच्छब्दवाच्यत्वमवगतम्' इत्युपमानाभावः।
दृष्टः श्रुतो वार्थोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यर्थान्तरकल्पनापत्तिः । श्रुतग्रहणस्य पृथगभिधानसाफल्यमुपपादयता परेणार्थापत्तिरुभयथोपपादिता दृष्टापत्तिः, श्रुतार्थापत्तिश्च ।
गवय में जो गोसादृश्य का ज्ञान अर्थात् 'यह गवय रूप पिण्ड संसार के और सभी पिण्डों से भिन्न ( स्वतन्त्र जीव ) है' इस प्रकार का ज्ञान भी ( उपमान से उत्पन्न न होकर ) प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा ही उत्पन्न होता है । एवं 'गवय रूप यही अर्थ गवय शब्द रूप संज्ञा का संज्ञी ( वाच्य ) है इस प्रकार संज्ञासंज्ञि सम्बन्ध का जो अनुसन्धान होता है, वह भी स्मरण ही है ( उपमान नहीं ), क्योंकि 'गोसदृशो गवयः' इस वाक्य के द्वारा पहिले उत्पन्न ग्रहणरूप संस्कार से ही इसकी उत्पत्ति होती है। यह संस्कार उक्त सादृश्यज्ञान से ही उबुद्ध होता है। जैसे कि किसी एक ही घट व्यक्ति में घट पद का सङ्केत सामान्य रूप से गृहीत होने पर भी उससे उत्पन्न संस्कार के द्वारा दूसरे घट व्यक्ति में भी घट शब्द की वाच्यता का इस आकार का अनुसन्धान होता है कि 'इस व्यक्ति में जिस घटवाच्यता को मैं समझ रहा हूँ, उसको मैं पहिले जान चुका हूँ। इन सभी उपपत्तियों से यह सिद्ध होता है कि उपमान नाम का कोई स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है ।
__शब्द या और किसी प्रमाण के द्वारा निश्चित अर्थ की उपपत्ति जिस दूसरे अर्थ की कल्पना के विना न हो सके, उस दूसरे अर्थ को ही 'अर्थापत्ति' कहते हैं । इस लक्षण में ( 'शब्द प्रमाण के द्वारा इस अर्थ के बोधक) 'श्रुत' पद का स्वतन्त्र रूप से साफल्य का उपपादन करते हुए मेरे प्रतिपक्षियों ( मीमांसकों) ने (१) दृष्टार्थापत्ति और (२) श्रुतार्थापत्ति इसके ये दो भेद किये हैं ।
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