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५३६
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष
अर्थापत्यन्तर्भाव
न्यायकन्दली यथोक्तम्
अन्वयाधीनजन्मत्वमनुमाने व्यवस्थितम् ।
अर्थापत्तिरियं त्वन्या व्यतिरेकप्रतिनी ॥ इति । श्रुतार्थापतिरपि यत्रानुपपद्यमानः शब्दः शब्दान्तरं कल्पयति, यथा 'पीनो दिवा न भुङ्क्ते' इति वाक्याद् रात्रौ भुङ्क्त इति वाक्यैकदेशकल्पना।
तत्र दृष्टार्थापत्ति तावदनुमानेऽन्तर्भावयति-दर्शनार्थादर्थापत्तिविरोध्ये. वेति । दृश्यत इति दर्शनम्, दर्शनं च तदर्थश्चेति दर्शनार्थः, पञ्चभिः प्रमाणैरवगतोऽर्थः । तस्माद् दर्शनार्थादर्थान्तरस्यापत्तिरर्थान्तरस्यावगतिविरोध्येव, विरोध्यनुमानमेव । यस्य यथा नियमस्तस्य तथैव लिङ्गत्वम्, इह तु प्रमाणान्तरविरुद्ध एवार्थोऽर्थान्तराविनाभूत इति विरोध्येव लिङ्गम् ।।
अयमभिप्राय:-गहाभावो यद्यनुपपत्तिमात्रेण बहिर्भावं कल्पयति, नियमहेतोरभावाद् अर्थान्तरमपि कल्पयेत् । स्वोपपत्तये गृहाभावोऽर्थान्तरं रीतियां भिन्न हैं, अतः ये दोनों दो भिन्न प्रमाण हैं। अर्थापत्ति के द्वारा ज्ञान की उत्पत्ति की रीति दिखलायी जा चुकी है ) जैसा कहा गया है कि
यह निश्चित है कि अन्वय (व्याप्ति ) के द्वारा अनुमान प्रमाण अपने फल रूप ज्ञान का उत्पादन करता है, अतः व्यतिरेक (व्याप्ति ) के द्वारा अपने ज्ञान को उत्पन्न करनेवाला अर्थापत्ति प्रमाण अनुमान से भिन्न है।
जहां शब्द अनुपपन्न होकर दूसरे शब्द की कल्पना करता है, वहाँ 'श्रुतार्थापत्ति' समझना चाहिए । जैसे कि 'पीनो दिवा न भुङ्क्ते' ( यह मोटा तो है, किन्तु दिन में भोजन नहीं करता है) इस वाक्य के द्वारा 'रात्रौ भुङ्क्ते' ( तो फिर रात में खाता है) इस वाक्यखण्ड का कल्पक होता है।
__'दर्शनार्थापतिविरोध्येव' इस वाक्य के द्वारा कथित 'दृष्टार्थापत्ति' अनुमान में अन्तर्भाव दिखलाते हैं । इस भाष्य में प्रयुक्त 'दर्शनार्थ' शब्द की अभीष्ट व्युत्पत्ति इस प्रकार है, दृश्यत इति दर्शनम्, दर्शनञ्च तदर्थश्च दर्शनार्थः' तदनुसार प्रत्यक्ष , अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि ( अभाव ) इन पाँच प्रमाणों में से किसी के द्वारा निश्चित अर्थ ही उक्त 'दर्शनार्थ' शब्द से अभिप्रेत है। इस 'दर्शनार्थ' अर्थात् कथित पाँच प्रमाणों में से किसी के द्वारा अवगत अर्थ से जो दूसरे अर्थ की 'आपत्ति' अवगति होती है, वह 'विरोधी' ही अर्थात् विरोधी अनुमान ही है । हेतु में साध्य का जिस प्रकार का नियम रहेगा, उसी प्रकार से हेतु में साध्य की ज्ञापकता भी (हेतुता) होगी । यहाँ ( अर्थापत्ति स्थल में ) दूसरे प्रमाण से विरुद्ध अर्थ ही दूसरे अर्थ की व्याप्ति से युक्त है । अतः यहाँ विरोधी ही हेतु है ।
____ कहने का अभिप्राय यह है कि चैत्र का घर में न रहना (गृहाभाव) यदि केवल अपनी अनुपपत्ति से ही उसके बहिर्भाव (बाहर रहने) की कल्पना करे तो फिर वह तुल्ययुक्ति से दूसरे की भी कल्पना कर सकता है, क्योंकि ऐसे नियम का कोई कारण नहीं है कि वह चैत्र के बहिर्भाव की ही कल्पना करे और किसी की नहीं। (प्र.)
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