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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
५३५ न्यायकन्दली यत्रार्थोऽन्यथानुपपद्यमानोऽर्थान्तरं गमयति, सा दृष्टार्थापत्तिः। यथा जीवति चैत्रो गृहे नास्तीत्यत्राभावप्रमाणेन गृहे चैत्रस्याभावः प्रतीतो जीवतीतिश्रुतेश्च तत्र सम्भवोऽपि प्रतीयते, जीवतो गृहावस्थानोपलम्भात् । न चैकस्य युगपदेकत्र भावाभावसम्भवः, तयोः सहावस्थानविरोधात् । तदयमभाव: प्रतीयमानो जीवतीति श्रवणानोपपद्यते, यद्ययं बहिर्न भवतीति । अनुपपद्यमानश्च यस्मिन् सति उपपद्यते तत्कल्पयति । जीवतो गहाभावोऽन्यथा नोपपद्यते । यद्ययं बहिर्न भवतीति जीवतीत्यनेन सह विरोध एव तस्यानुपपत्तिः । सा चैत्रस्य बहिर्भावे प्रतीते निवर्तते। चैत्रो जीवति गृहे च नास्ति बहिःसद्भाभावादिति सावकाशनिरवकाशयोः प्रमाणयोविरोधे सति निरवकाशस्यानुपपत्तिमुखेन सावकाशस्य विषयान्तरोपपादनात् तयोरविरोधसाधनमापत्तिः । या पुनर्देशादिनियतस्य सम्बन्धिनो दर्शनात सम्बन्धस्मरणद्वारेण सम्बन्ध्यन्तरप्रतीतिः सानुमानमित्यनयोर्भेदो ज्ञानोदयप्रकारभेदात ।
जहाँ प्रकृत अर्थ अनुपपन्न होकर दूसरे अर्थ का ज्ञापक होता है वहाँ 'दृष्टार्थापत्ति' समझना चाहिए। जैसे 'जीवति चैत्रो गृहे नास्ति' (चैत्र जीते हैं किन्तु घर में नहीं हैं) इस स्थल में जीवित रहने के कारण चैत्र के घर में रहने की सम्भावना को भी प्रतीति होती है। क्योंकि जीवित व्यक्ति घर में भी देखे जाते हैं। एवं अनुपलब्धि रूप अभाव प्रमाण से घर में चैत्र का अभाव भी निश्चित है। किन्तु एक ही समय चैत्र का घर में रहना और न रहना दोनों सम्भव नहीं है, क्योंकि एक ही वस्तु में एक ही समय सत्ता और असत्ता दोनों का रहना परस्पर विरोध के कारण सम्भव नहीं है । अतः अभाव प्रमाण के द्वारा चैत्र के घर में न रहने की जो प्रतीति होती है, वह तब तक उपपन्न नहीं हो सकती, जब तक कि चैत्र का घर से बाहर रहना निश्चित न हो । जिसकी अनुपपत्ति होती है, वह ऐसी ही किसी वस्तु की कल्पना करता है, जिससे कि उसकी उपपत्ति हो सके । जीते हुए का घर में न रहना अन्यथानुपपन्न है, अर्थात् यदि वह बाहर नहीं रहता है तो ठीक नहीं बैठता। 'जीवति' के माथ 'गृहे नास्ति' का यह 'विरोध' ही उसकी 'अनुपपत्ति' है । यह अनुपपत्ति तब हटती है जब कि चैत्र के इस प्रकार से बाहर रहने की प्रतीति होती है कि 'चैत्र घर में नहीं रहने पर भी बाहर हैं, क्योंकि वह जीवित है। ( इससे अर्थापत्ति का यह निष्कृष्ट लक्षण हुआ कि ) एक सावकाश प्रमाण के साथ दूसरे निरवकाश प्रमाण का विरोध उपस्थित होने पर निरवकाश प्रमाण की अनुपपत्ति के प्रदर्शन के द्वारा सावकाश प्रमाण को दूसरे विषय का ज्ञापक मानकर उक्त दोनों प्रमाणों में अविरोध का सम्पादन ही 'अर्थापत्ति है। एक देश या एक काल में नियमित रूप से रहनेवाले दो सम्बन्धियों में से एक को देखने से उनके (नियम या व्याप्ति रूप ) सम्बन्ध की स्मृति के द्वारा जो दूसरे सम्बन्धी की प्रतीति होती है, वही अनुमान (या अनुमिति) है। इस प्रकार कि अनुमान और अर्थापत्ति इन दोनों प्रमाणों से ज्ञान की उत्पत्ति की
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