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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गणसाधर्म्यवैधर्म्य
प्रशस्तपादभाष्यम् संयोगविभागद्वित्वद्विपृथक्त्वादयोऽनेकाश्रिताः ।
शेषास्त्वेकैकवृत्तयः। रूपरसगन्धस्पर्शस्नेहसांसिद्धिकद्र वत्वबुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मभावनाशब्दा वैशेषिकगुणाः । |
संयोग, विभाग, द्वित्व और द्विपृथक्त्वादि गुण अनेकाश्रित' (अर्थात् इनमें से प्रत्येक अनेक द्रव्यों में ही रहनेवाला है) हैं।
शेष सभी गुण 'एकद्रव्यवृत्ति' अर्थात् एक एक द्रव्य में ही रहते हैं
रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, स्नेह, सांसिद्धिक द्रवत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, भावना, संस्कार और शब्द ये ( सोलह ) विशेष गुण हैं।
न्यायकन्दली ___ संयोगविभागद्वित्वद्विपृथक्त्वादयोऽनेकाश्रिताः, एका संयोगव्यतिरेका च विभागव्यक्तिरुभयोर्द्रव्योर्वर्त्तत इत्यनेकाश्रितत्वम् । एवं द्वित्वद्विपृथक्त्वव्यक्त्यो. रपि। आदिशब्दगृहीतास्तु त्रित्वत्रिपृथक्त्वादिव्यक्तयो यथासम्भवं बहुष्वाश्रिताः । अनेकशब्दश्च ‘एको न भवति' इति व्युत्पत्त्या द्वयोर्बहुष्वपि साधारणः ।
शेषास्त्वेकैकवृत्तयः शेषा' रूपादिव्यक्तयः, एकस्यामेव व्यक्तौ वर्तन्ते, न पुनरेका रूपव्यक्तिः संयोगवदुभयत्र व्यासज्य वर्तत इत्यर्थः ।
विशेषगुणान निरूपयति-रूपरसगन्धेत्यादि । विशेषो व्यवच्छेदः, तस्मै प्रभवन्ति ये गुणास्ते वैशेषिका गुणा रूपादयः । ते हि स्वाश्रयमितरस्मा
एक ही संयोग और एक ही विभाग ( अपने प्रतियोगी और अनुयोगी) दोनों द्रव्यों में रहता है, अतः ये दोनों 'अनेकाश्रित' गुण हैं। इसी प्रकार द्वित्व और द्विपृथक्त्वये दोनों भी 'अनेकाश्रित' गुण हैं। आदि' शब्द के द्वारा बहुत से द्रव्यों में रहनेवाले त्रित्व एवं त्रिपृथक्त्वादि गुण भी अनेकाश्रित कहे गये हैं । ‘एको न भवति' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'दो' एवं इससे अधिक 'बहुत' सभी 'अनेक' शब्द के अर्थ हैं ।
'शेष' अवशिष्ट रूपादि गुणों की इकाइयां एक एक द्रव्य में ही रहती है। अभिप्राय यह है कि एक ही रूपादि इकाई संयोग की तरह दो व्यक्तियों को व्याप्त कर नहीं रहती।
_ 'रूपरस' इत्यादि वाक्य के द्वारा विशेष गुणों का वर्णन करते हैं। 'विशेष' शब्द का अर्थ है 'व्यवच्छेद' अर्थात् भेदबुद्धि । इतने गुण भेदबुद्धि के उत्पादन में समर्थ है।
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