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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे विभाग
न्यायकन्दली तेनावधारिते विषयस्य बाधे नास्त्यनुमानस्य प्रवृत्तिः । किमर्थं पुनर्ज्ञानयोबर्बाध्यबाधकभावः कल्प्यते, समाने विषये तयोविरोधात् । एकमेव तद्वस्तु किञ्चिद्रजतमित्येवं बोधयति शुक्तिकेयमिति चापरम् । शुक्तिकात्वरजतत्वयोश्च नैकत्र संभवः, सर्वदा तयोः परस्परपरिहारेणावस्थानोपलम्भात । अतो विषयविरोधात् तद्विज्ञानयोरपि विरोधे सति बाध्यबाधकभावकल्पनम् ।
को बाधः ? विषयापहारः । ननु रजतज्ञानावभासितो धर्मी तावदुत्पन्नेऽपि ज्ञानान्तरे तदवस्थ एव प्रतिभाति, रजतत्वं नास्त्येव, किमपहियते ? सम्बन्धवियोजनस्यापहारार्थत्वात् । विज्ञाने प्रतिभातं तदिति चेत् ? सत्यं प्रतिभातं न त प्रतिभातं शक्यापहारम्, भूतत्वादेव । नहि प्रतिभासितोऽर्थोऽप्रतिभासितो भवति, वस्तुवृत्त्या रजतमविद्यमानमपि ज्ञानेन तत्र विद्यमानवदुपदर्शितम् । तस्य अनुमान से भी प्रत्यक्ष दुर्बल होता है' यह कहते हुए वृद्ध लोग दिग्भ्रम स्थल में प्रत्यक्ष से अनुमान को ही बलबान मानते हैं । वह्नि में उष्णत्व के ग्राहक प्रत्यक्ष प्रमाण से अनुमान को दुर्बल मानते हैं। चूंकि वह्नि में उष्णत्व के ग्राहक प्रत्यक्ष प्रमाण की किसी और प्रकार से उपपत्ति नहीं हो सकती, अतः प्रत्यक्ष से निश्चित उष्णत्व रूप विषय का बाध रहने के कारण ( वह्नि में अनुष्णत्व विषयक ) अनुमान की प्रवृत्ति नहीं होती है। (प्र०) यह कल्पना ही क्यों करते हैं कि एक ज्ञान बाध्य है और दूसरा बाधक ? ( उ० ) चूँकि समान विषय के दो ज्ञानों में विरोध रहता है। एक ही वस्तु को कोई रजत समझता है कोई सीप, किन्तु शुक्तिकात्व और रजतत्व दोनों एक आश्रय में नहीं रह सकते, क्योंकि दोनों की प्रतीति बराबर एक को छोड़कर ही होती है, ( कभी समानाधिकरण रूप से नहीं), अतः दोनों विषयों में विरोध (सहान वस्थान ) के कारण दोनों के ज्ञानों में भी विरोध होता है। इसीसे एक में बाधकत्व और दूसरे में बाध्यत्व की कल्पना भी की जाती है।
(प्र०) बाध कौन सी वस्तु है ? ( उ०) विषयों का अपहरण ही ज्ञानों का बाध है । (प्र. ) ( शुक्तिका में ) यह रजत है' इस आकार के ज्ञान से प्रकाशित होनेवाली शुक्तिका रूप धौं, शुक्तिका में यह शुक्तिका है' इस आकार के बाधक ज्ञान के उत्पन्न होनेपर भी ज्यों का त्यों प्रतिभासित होता है, और रजतत्व तो शुक्तिका में है ही नहीं, तो फिर ( 'यह शुक्तिका है, रजत नहीं' इत्यादि आकार के ) बाधक ज्ञान किन विषयों का अपहरण करते हैं। ( उ० ) बाधक ज्ञान से ( ज्ञान में भासित होनेवाले धर्मी और धर्म के ) सम्बन्ध का अपहरण होता है। (प्र०) वह ( सम्बन्ध ) भी तो ( शुक्तिका में यह रजत है' इस ) विज्ञान में प्रतिभासित है ही। ( उ०) अवश्य ही सम्बन्ध भी उक्त ज्ञान में प्रतिभासित होता है, क्योंकि प्रतिभान ( ज्ञान ) का तो अपहरण हो नहीं सकता, क्योंकि ज्ञान की यथार्व में सत्ता है।
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