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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे संशय
न्यायकन्दली अस्पर्शवत्त्वस्य स्पर्शाभावस्याकाशान्तःकरणगतस्य प्रतीत्यात्मन्यणुत्वमहत्त्व. संशयदर्शनात् ।
तदयं संक्षेपार्थः-- यदायं प्रतिपत्तोभयसाधारणं धर्म क्वचिदेकत्र धर्मिण्युपलभते, कुतश्चिनिमित्तात् तस्य धर्मिणो विशेषं नोपलभते, पूर्वप्रतीतयोः स्मरति विरुद्धविशेषयोः, न चोभयोरेकत्र सम्भावयति सद्भावम्, विरुद्धत्वात् । नाप्यभावं तदविनाभूतस्य साधारणधर्मस्य दर्शनात् । तदास्य साधारणधर्मविषयत्वेनावधारिते मिणि विशेषविषयत्वेनानवधारणात्मकः प्रत्ययः संशयो भवति ।
नन्वनवधारणात्मकः प्रत्ययश्चेति प्रतिषिद्धम् । इदं हि प्रत्ययस्य प्रत्ययत्वं यद्विषयमवधारयति ? न, उभयस्यापि सम्भवात् । अयं हि सामान्यविशिष्टधर्म्यपलम्भेन धर्मविशेषानुपलम्भविरुद्धोभयविशेषस्मरणसहकारिणा जन्यमान इति सामान्यविशिष्टं धर्मिणमवधारयन् स्थाणुर्वा पुरुषो वेति विशेषमनवधारयन्ननवधारणात्मकः प्रत्ययश्च स्यात् । दृष्टं साधारण धर्मों को समझना चाहिए । अनेक वस्तुओं में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाली 'साहश्य' नाम की कोई वस्तु नहीं है, क्योंकि आकाश और अन्त:करण (मन) इन दोनों में रहनेवाले स्पीभाव से आत्मा में अणुत्व और महत्त्व दोनों का संशय होता है ।
कहने का तात्पर्य यह है कि जिस समय किसी ज्ञाता को किसी धर्मी में दो वस्तुओं में समान रूप से रहनेवाले धर्म का ज्ञान होता है. एवं उन दोनों वस्तुओं के असाधारण धर्मों का अनुभव नहीं हो पाता। एवं दोनों धमियों के पहिले से ज्ञात विशेए धर्मों का स्मरण भी रहता है। उस समय वह यह समझता है कि इन दोनों विशेष धर्मों का एक धर्मी में रहना सम्भव नहीं है, क्योंकि ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं, इन दोनों विशेष धर्मों का अभाव भी निश्चित नहीं है, क्योंकि उनके साथ अवश्य रहनेवाले साधारण धर्म तो देखे ही जाते हैं। उस समय साधारण धर्मों के आश्रयरूप से निश्चित उस धर्मी में विशेष धर्मों का जो अनिश्चयात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है वही 'संशय' है।
(प्र०) यह अनिश्चयात्मक है, एवं प्रतीति भी है, ये दोनों बातें परस्पर विरुद्ध हैं, क्योंकि सभी प्रतीतियों का यही काम है कि अपने विषयों को निश्चित रूप में समझा। (उ०) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि दोनों ही बातें हो सकती हैं, चूंकि यह संशयरूप ज्ञान सामान्य धर्म से युक्त धर्मी के ज्ञान, विशेष धर्मों की अनुपलब्धि, एवं विशेष धर्मों के स्मरण, इन तीनों से उत्पन्न होता है, अतः सामान्य धर्म विशिष्ट धर्मों का तो वह अवधारण कर सकता है, क्योंकि केवल धर्मी के अंश में वह अवधारणात्मक है ही, किन्तु 'स्थाणु है या पुरुष' यह ज्ञान इन (स्थाणुत्व और पुरुषत्व) दोनों का निश्चायक न होने के कारण 'अयं स्थाणुर्वा पुरुषः' तह संशयज्ञान रूप अनवधारणात्मक भी है, अतः अनवधारण
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