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प्रकरणम् ]
भावानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
मुत्पद्यते, सद् द्रव्यं पृथिवी विषाणी विषाणी शुक्लो गौर्गच्छतीति । रूपरसगन्धस्पर्शेष्वनेकद्रव्यसमवायात् स्वगतविशेषात् स्वाश्रयसन्नि
इन्द्रियों के द्वारा रूप, रस, गन्ध और स्पर्श विषयक प्रत्यक्ष के उत्पादन के लिए इनमें से प्रत्येक के लिए नियमित चक्षुरादि तत्तत् इन्द्रिय, अनेक अवयवों से बने हुए द्रव्य में समवाय, रूपादि प्रत्येक में रहनेवाले रूपत्वादि असाधारण धर्म, एवं कथित रूपादि विषयों के आश्रयीभूत
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न्यायकन्दली
विशिष्दज्ञानत्वादेवापराधात् प्रत्यक्षं न भवति दुःसमाधेयमित्युपरम्यते । प्रत्यक्षोत्पत्तिकारणमाह - रूपरसेत्यादि ।
रूपादिषु अनेकेष्ववयवेषु समवेतं द्रव्यमनेकद्रव्यम्, तत्र समवायात् । स्वगतो विशेषो रूपे रूपत्वं रसे रसत्वं गन्धे गन्धत्वं स्पर्शे स्पर्शत्वं तस्मात् स्वाश्रयसन्निकर्षाद् रूपादीनां य आश्रयस्तस्य ग्राहकॅरिन्द्रियैः सन्निकर्षान्नियतेन्द्रियनिमित्तं चक्षुर्निमित्तं रूपे, रसननिमित्तं रसे, घ्राणनिमित्तं गन्धे, त्वगिन्द्रियनिमित्तं स्पर्शे ज्ञानमुत्पद्यते । प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है तो फिर इस प्रश्न का समाधान कठिन है, अतः हम इससे विरत होते हैं ।
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'रूपरस' इत्यादि पङ्क्ति के द्वारा रूपादि विषयों के प्रत्यक्ष के कारण कहे गये हैं । ( इस वाक्य के अनेकद्रव्यसमवायात्' इस पद का ) ' अनेकेष्ववयवेषु समवेतं द्रव्यमनेकद्रव्यं तत्र समवायात्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार अनेक अवयवों में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाला ( द्रव्य ही 'अनेकद्रव्य' शब्द का ) अर्थ है उसमें रूपादि का समवाय रूपादि के प्रत्यक्ष का कारण है । ( अर्थात् कथित 'अनेकद्रव्य' में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले रूपादि का ही प्रत्यक्ष होता है अन्य रूपादि का नहीं ) रूप में रूपत्व, रस में रसत्व, गन्ध में गन्धत्व और स्पर्श में स्पर्शत्व ही प्रकृत 'स्वगतविशेष' शब्द से अभिप्रेत हैं, ये भी क्रमशः रूपादि प्रत्यक्ष के कारण हैं । 'स्वाश्रयसंनिकर्ष' से अर्थात् रूपादि के जो आश्रयद्रव्य हैं उनका अपने अपने ग्राहक इन्द्रियों के साथ जो संनिकर्ष ( उससे रूपादि का ) 'नियतेन्द्रियनिमित्त' अर्थात् रूप में चक्षु स्वरूप निमित्त से, रस में रसनेन्द्रिय निमित्त से, गन्ध में घ्राण रूप निमित्त से, एवं स्पर्श में त्वक् रूप निमित्त से प्रत्यक्ष की उत्पत्ति होती है । चूंकि 'स्वगतविशेष' अर्थात् रूपत्वादि धर्म भी क्रमशः रूपादि प्रत्यक्ष के कारण हैं, अतः ( रूप का प्रत्यक्ष चक्षु से ही हो, से ही हो इत्यादि प्रकार की ) व्यवस्थायें उपपन्न होती हैं । व्यवच्छेदक न रहने के कारण इन्द्रियों के साङ्कर्य की आपत्ति
रस का प्रत्यक्ष रसनेन्द्रिय
ऐसा न मानने पर कोई होगी । ' शब्दस्य त्रय