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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे अनुमानन्यायकन्दली व्यावृत्तिप्रतीतिरिति । तदयुक्तम् । परस्य तावत् समस्तवस्तुविषयं नैरात्म्यमिच्छतो घटादिभ्यः सिद्धैवात्मव्यावृत्तिः । स्वस्यापि जीवच्छरीरेष्वेवात्मनो बुद्धयादिभिः कार्यैः सह कार्यकारणभावे सिद्धे घटादिभ्यो बुद्धयादिव्यावृत्त्या तदुत्पादनसमर्थस्य विशिष्टात्मसम्बन्धस्याभावसिद्धिः । यथा धूमाभावे क्वचित् तदुत्पादनयोग्यस्य वह्नरभावसिद्धिः । यद्येवमात्मापि जीवच्छरीरेषु सिद्ध एव, सम्बन्धिप्रतीतिमन्तरेण सम्बन्धप्रतीतेरसम्भवात् । ततश्च व्यतिरेक्यनुमानवैयर्थ्यम्, निष्पादितकिये कर्मणि साधनस्य साधनन्यायातिपातात् । नेवम्, स्वसिद्धस्यात्मनः परं प्रत्यसिद्धस्य साध्यत्वात् । न चान्वयाव्यभिचारः प्रतिपादको न व्यतिरेकाव्यभिचार इत्यस्ति नियमहेतुः । तस्माद् व्यतिरेकिणोऽपि हेतुत्वात् तेन
हो सकता है। आत्मा कहीं पर ज्ञात नहीं है, अतः घटादि पदार्थों में भी उसके अभाव की प्रतीति क्यों होगी ? ( उ०) तो यह समझना भूल होगी, क्योंकि (बौद्धादि) परमत के अनुसार भी तो घटादि में नैरात्म्य सिद्ध ही है, क्योंकि वे तो सभी वस्तुओं में नैरात्म्य की अभिलाषा करते हैं। स्वमत' ( वैशेषिकादिमत ) में भी जीवित शरीर में ही आत्मा का सम्बन्ध बुद्धि प्रभृति का कारण है, अतः (अवच्छेदकत्व सम्बन्ध) से शरीर में बुद्धियादि कार्यों की उत्पत्ति होती है (मृत शरीर एवं घटादि में नहीं), इस प्रकार आत्मा से सम्बद्ध जीवित शरीर और बुद्धि प्रभृति में कार्यकारण भाव की सिद्धि हो जाने पर घटादि में बुद्धि का अभाव सिद्ध हो जाएगा, क्योंकि आत्मा का उक्त विशेष प्रकार का सम्बन्ध ही बुद्धि की उत्पत्ति का कारण है, सो घटादि में नहीं है, अतः उसमें कथित सात्मकत्व भी नहीं है। इस 'स्व'मत में भी निरात्मकत्वरूप साध्याभाव का ज्ञान सम्भावित है। जैसे कि धूम के न रहने पर कहीं पर धूम को उत्पादन करनेवाले वह्नि के अभाव की सिद्धि होती है। (प्र०) ( जीवित शरीर में जिस सात्मकत्व की सिद्धि करना चाहते हैं, वह सात्मकत्व आत्मा का सम्बन्ध हो है ) सम्बन्व का ज्ञान बिना प्रतिथोगी और अनुयोगी रूप दोनों सम्बन्धियों के ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है। अतः जीवित शरीर में आत्मा तो सिद्ध ही है। तस्मात् उक्त व्यतिरेकी अनुमान व्यर्थ है, क्योंकि निष्पन्न कामों में साधन अपना साधनत्व छोड़ बैठता है (उ० ) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि अपने मत से जीवित शरीर में आत्मा के सिद्ध रहने पर भी नास्तिकों के मत में वह सिद्ध नहीं है। अतः परमत से असिद्ध आत्मा के सम्बन्ध का अनुमान ही प्रकृत में व्यतिरेको हेतु से किया गया है। यह नियम मान लेने में कोई युक्ति नहीं है कि अन्वय का अव्यभिचार (अन्वयव्याप्ति) ही साध्य का ज्ञापक है और व्यतिरेक का अव्यभिचार (व्यतिरेक) व्याप्ति नहीं। अतः (केवल) व्यतिरेकी भी हेतु अवश्य है। तस्मात् 'प्रसिद्धञ्च तदन्विते' इत्यादि से कथित सपक्षवृत्तित्व रूप
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