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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे अनुमान
न्यायकन्दली नन्वेवमप्यलक्षणमिदमव्यापकत्वात् । त्रिविधो हि हेतुः-अन्वयी, व्यतिरेको, अन्वयव्यतिरेकी चेति । तत्रान्वयी विशेषोऽभिधेयः, प्रमेयत्वात्, सामान्यवत् । अस्य हि पक्षादन्यः सर्व एव सदसत्प्रभेदः सपक्षः, प्रमातृमात्रस्य प्रमाणमात्रापेक्षयाऽनभिधेयस्याप्रमेयस्याभावात् । यश्च पुरुषमात्रस्यानभिधेयोऽप्रमेयश्च स वाजिविषाणवदसन्नेव, न वा सपक्षो विपक्षो वा स स्यात्, निःस्वभावत्वात् । यश्च सत् स सर्वः सपक्ष एवेति तदभावे च नास्त्येवेत्यव्यापकं लक्षणम्, व्यतिरेकाभावात् । अगमकमेव तदिति चेन्न, अन्वयाव्यभिचारात् । अन्यस्य सद्धावादन्यस्य सिद्धिरित्यत्रान्वयः कारणम, तस्य तु व्यभिचारप्रतीतिरपवादिका । अस्ति तावत् प्रमेयत्वाभिधेयत्वयोरन्वयः, सर्वत्र प्रमेयेऽभिधेयत्वस्य दर्शनात् । न च व्यभिचारो दृष्टो नापि शङ्कामारोहति, यं यं व्यतिरेकविषयं बुद्धिगोचरी
(प्र०) प्रकरणसम और कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभासों में अतिव्याप्ति के न होने पर भी हेतु का यह लक्षण 'तदभावे च नास्त्येव' इस विशेषण के कारण केवलान्वयि हेतु में अव्याप्त या अव्यापक है ही। अभिप्राय यह है कि (१) अन्वयी ( केवलान्वयी), (२) ( केवल ) व्यतिरेकी, एवं (३) अन्वयव्यतिरेको भेद से हेतु तीन प्रकार के हैं । इनमें 'विशेषोऽभिधेयः प्रमेयत्वात् सामान्यवत्' इस अनुमान का हेतु अन्वयी ( केवलान्वयी) है। इस अनुमान के पक्ष से अतिरिक्त जितने भी भाव और अभाव पदार्थ हैं, वे सभी सपक्ष हैं, क्योंकि कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो किसी प्रमाता पुरुष के द्वारा प्रमित नहीं है ( अर्थात् प्रमेय नहीं है ) और किसी (शब्द ) प्रमाण का अभिधेय नहीं है । जो न किसी प्रमाता पुरुष के द्वारा शब्द से निर्दिष्ट होता है और न किसी प्रमाता पुरुष के द्वारा प्रमित ही होता है, वह घोड़े के सींग की तरह सर्वथा असत् होने के कारण न सपक्ष ही हो सकता है न विपक्ष ही, क्योंकि असत् वस्तुओं का कोई स्वभाव नहीं होता । जितने भी पदार्थ 'सत्' हैं वे सभी इस अनुमान के सपक्ष ही हैं। अतः इस अनुमान में व्यतिरेक नहीं है, अर्थात कोई विपक्ष नहीं है। सुतराम् ‘तदभावे च नास्त्येव' हेतु लक्षण का यह अंश उक्त केवलान्वयी हेतु में नहीं रहने के कारण हेतु का उक्त लक्षण अव्याप्ति से दुष्ट है। यदि यह कहें कि (प्र.) केवलान्वयो हेतु से अनुमान होता ही नहीं। (उ०) तो यह कहना सम्भव नहीं होगा, क्योंकि एक की सत्ता से दूसरे की जो सिद्धि होती है, इसमें 'अन्वय' ही कारण है, चूंकि इस कार्यकारणभाब में कोई व्यभिचार उपलब्ध नहीं है, ( अतः ‘केवलान्वयि-हेतु से अनुमिति नहीं होती' यह नहीं कहा जा
१. अनुमान प्रयोग का आशय है कि जिस प्रकार घटत्वादि जातियाँ प्रमेय होते के कारण अभिधेय है, उसी प्रकार 'विशेष' अर्थात् घटादि व्यक्ति भी प्रमेय होने के कारण अभिधेय हैं ।
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