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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् विधिस्तु यत्र धूमस्तत्राग्निरग्न्यभावे धूमोऽपि न भवतीत्येवं प्रसिद्धसमयस्यासन्दिग्धधूमदर्शनात् साहचर्यानुस्मरणात् तदनन्तरमग्न्यध्यवसायो भवतीति ।
(अनुमिति की उत्पत्ति को यह ) रीति है कि जहाँ जहाँ धूम है, उन सभी स्थानों में वह्नि भी अवश्य ही है, एवं जहाँ जहाँ अग्नि नहीं है, उन सभी स्थानों में धूम भी नहीं है' इस प्रकार से 'समय' अर्थात् व्याप्ति का निश्चय जिस पुरुष को है, उसी पूरुष को धम के असन्दिग्ध दर्शन अर्थात् निश्चय, और उसके बाद उत्पन्न धम और वह्नि के सामानाधिकरण्य ( एक अधिकरण में रहने ) के स्मरण के बाद अग्नि का (अनुमिति रूप ) निश्चयात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है।
न्यायकन्दली इदमनेनाविनाभूतमिति ज्ञानं यस्य नास्ति तं प्रति मिणि धर्मस्यान्वयव्यतिरेकवतोऽपि लिङ्गत्वं न विद्यते, तदर्थमविनाभावस्मरणमनुमेयप्रतीतावनुमानाङ्गमिति दर्शयति-विधिस्त्विति ।
विधिस्तु अनुमेयप्रतीतिप्रकारस्तु, यत्र धूमस्तत्राग्निरग्न्यभावे धमो न भवतीति । एवं प्रसिद्धसमयस्य प्रसिद्धाविनाभावस्य पुरुषस्यासन्दिग्धधूमदर्शनाद् धूम एवायम्, न बाष्पादिकमिति ज्ञानात् साहचर्यांनुस्मरणाद् यत्र धूमस्तत्राग्निरित्येवमनुस्मरणात्, तदनन्तरमग्न्यनुमानं भवति । नन्वेवं द्वितीयो लिङ्गपरामर्शी न लभ्यते ? मालम्भि, नहि नस्तेन प्रयोजनम्, लिङ्गदर्शनव्याप्तिस्मरणाभ्यामेवानुमेयप्रतीत्युपपत्तेः। न च स्मृत्यनन्तरभावित्वादनुमेयप्रतीतिरनियतदिग्देशा स्यात् ? लिङ्गदर्शनस्य नियामकत्वात् । नाप्युपनय. से 'अविनाभाव' रूप व्याप्ति का भान नहीं रहता है, तो फिर उस हेतु में उस साध्य का हेतुत्व ( अर्थात् ज्ञापकत्व ) नहीं रहता है। अत: अविनाभाव (व्याप्ति ) का स्मरण भी अनुमेय की प्रतीति (अनमिति ) का सहकारिकारण है। यही बात विधिस्तु' इत्यादि सन्दर्भ से दिखलायी गयी है।
'विधि' अर्थात अनमिति की उत्पत्ति की रीति यह है कि 'जहाँ धूम है वहाँ अग्नि है, एवं जहाँ अग्नि नहीं है वहां धूम भी नहीं है' इस प्रकार से 'समय' अर्थात् अविनाभाव (व्याप्ति ) की प्रतीति जिस पुरुष को है, उसे जब धूम का 'असन्दिग्ध' ज्ञान अर्थात् 'यह धूम ही है, बाष्पादि नहीं' इस आकार का ज्ञान होता है, तब 'साहचर्य के अनुस्मरण से' अर्थात् जहाँ धूम है वहाँ वह्नि है' इस प्रकार के स्मरण के बाद अग्नि की अनुमिति होती है । (प्र.) यदि अनुमिति का यही क्रम निर्धारित हो जाता है तो फिर “द्वितीय लिङ्गपरामर्श' में ( अर्थात् 'साध्यव्याप्तिविशिष्टहेतुमान् पक्षः' इस आकार के परामर्श में) अनुमिति की कारणता का लाभ न होगा? (उ०) न हो, क्योंकि व्याप्ति का स्मरण और पक्षधर्मता का ज्ञान, इन दोनों से ही अनुमिति की उत्पत्ति हो जाएगी। (प्र०) अनुमिति यदि (व्याप्ति) स्मरण के अव्यवहित उत्तर काल में ही उत्पन्न हो तो फिर वह कब किस देश (पक्ष) में उत्पन्न होगी -इसका कोई नियामक नही होगा ? ( उ०) 'लिङ्गदर्शन' ही उसका नियामक होगा
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