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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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४९९
स्वभावेन हि कस्यचित् केनचित् सह सम्बन्धो नियतो निरुपाधिकत्वात् उपाधिकृतो हि सम्बन्धः तदपगमार्थ निवर्तते, न स्वाभाविकः । यदि धूमस्योपाधिकृतो वह्निसम्बन्ध: ? उपाधय उपलब्धाः स्युः, शिष्याचार्ययोरिव प्रत्यासत्तावध्ययनम् । नहि वह्निधूमयोरसकृदुपलभ्यमानयोस्तदुपाधीनामनुपलम्भे किञ्चिद् बीजमस्ति । न चोपलभ्यमानस्य नियमेनानुपलम्या भवन्त्युपाधयः, ते हि यदि स्वरूपमात्रानुबन्धिनस्तथाप्यव्यभिचारसिद्धिः, तत्कृतस्यापि सम्बन्धस्य यावद्द्रव्यभावित्वात् । अथागन्तवः ? तत्कारणान्यपि प्रती. येरन् । उपाधयस्तत्कारणानि च सर्वाण्यतीन्द्रियाणीति गुर्वीयं कल्पना । यस्य चोपाधयो न सन्ति स धूमः कदाचित् स्वतन्त्रोऽप्युपलभ्येत, यथेन्धनोपाधिकृतधूमसम्बन्धो वह्निः शुष्केन्धनकृताधिपत्यो विधूमः प्रत्यवमृश्यते । न च तथा संविदन्तरे धूमः कदाचिन्निरग्निराभाति । तस्मादुपलब्धिलक्षणप्राप्ताना
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अभिप्राय यह है कि स्वभाव के द्वारा ही किसी भी वस्तु का किसी वस्तु के साथ जो सम्बन्ध स्थापित होता है वही उपाधि से शून्य होने के कारण 'नियम' कहलाता है । उपाधिमूलक सम्बन्ध ही उपाधि के हटने पर टूटता है, स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं । यदि धूम में वह्नि का सम्बन्ध भी उपाधिमूलक ही हो तो फिर उन उपाधियों की उपलब्धि उसी प्रकार होनो उचित है, जिस प्रकार कि शिष्य और आचार्य की उपलब्धि के बाद अध्ययन रूप उपाधि की उपलब्धि होती है । इसका कोई हेतु नहीं मालूम होता कि बार बार उपलब्ध होनेवाले वह्नि और धूम के सम्बन्ध की उपलब्धि तो हो, किन्तु उसकी प्रयोजिका उपाधि की उपलब्धि न हो । इसमें भी कोई हेतु नहीं है, कि उपलब्ध होनेवाली वस्तुओं के सम्बन्ध की उपाधियाँ नियमतः अनुपलभ्य ही हों । ये ( उपाधियाँ ) यदि अपनी स्वरूपसत्ता के कारण ही अपने उपधेयों ( साध्य और हेतुओं) के सम्बन्ध के कारण हैं, फलतः नित्य हैं । तो भी व्याप्ति की सिद्धि हो ही जाती है, क्योंकि यह औपाधिक सम्बन्ध अपने उपधेय रूप सम्बन्बियों को सत्ता तक विद्यमान ही रहता । यदि ये आगन्तुक हैं ? अर्थात् कारणों से उत्पन्न होते हैं तो फिर उनके कारणों की भी प्रतीति होनी चाहिए । यह कल्पना तो बहुत गौरवपूर्ण होगी कि उपाधियाँ और उनके कारण सभी अतीन्द्रिय ही हैं। जिन हेतुओं के उपाधि नहीं होते, वे कदाचित् स्वतन्त्र रूप से ( साध्य सम्बन्ध के बिना ) भी उपलब्ध होते हैं । किन्तु उपाधि से रहित धूम हेतु कभी भी स्वतन्त्र रूप (ह्न को छोडकर ) उपलब्ध नहीं होता है, जैसे कि उपाधिमूलक सम्बन्ध के योग्य वह्नि ही जब सूखी हुई लकड़ियों से उत्पन्न होती है तो बिना धूम सम्बन्ध के भी देखी जाती है, यद्यपि वह्नि ही जब गीली लकड़ी से उत्पन्न होती है,