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.५२७
प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली यथार्थतोत्पादः ? एवं सति सर्वमेव वाक्यमवितथं स्यात् । अथ प्रमाणज्ञानाड् वाक्ये यथार्थतोत्पादः ? न तहि कारणस्वरूपमात्रात् प्रामाण्यमपि तु तद्गुणात् । शब्दस्य कारणमर्थज्ञानम्, तस्य गुणो यथार्थत्वम्। अयथार्थत्वं च दोषः। तत्र यथार्थताया वाक्यप्रामाण्यहेतुत्वे कारणगुणादेव तस्य प्रामाण्यम्, न स्वरूपमात्रात् । शब्दस्य च गुणात् प्रामाण्ये ज्ञानान्तराणामपि तथैव स्यात् । विवादाध्यासितानि विज्ञानानि कारणगुणाधीनप्रामाण्यानि, प्रमाणज्ञानत्वाच्छब्दाधीनप्रमाणज्ञानवत् ।
शब्देऽपि कारणगुणस्य दोषाभावे व्यापारो न प्रामाण्योत्पत्ताविति चेत् ? न, गुणेन दोषप्रतिबन्धाद् दोषकार्यस्यायथार्थत्वस्योत्पत्तिर्मा भूत्, यथार्थत्वोत्पादस्तु
में रहनेवाले (प्रमा अप्रमा साधारण ) सभी ज्ञानों से उस पुरुष के द्वारा प्रयुक्त वाक्यों से उत्पन्न ज्ञानों में यथार्थता (प्रमात्व) की उत्पत्ति होती है। यदि ऐसी बात हो तो सभी वाक्य प्रमाण ही होगे। अगर वक्ता में रहनेवाले प्रमाज्ञान से ही तज्जनित वाक्य में प्रामाण्य की उत्पत्ति होती है. अर्थात् वाक्यजनित ज्ञान में प्रामाण्य की उत्पत्ति होती है, तो फिर 'ज्ञान के उत्पादक कारणों से ही प्रामाण्य की उत्पति होती है' यह न कहकर यह कहिए कि उस 'कारणगुण' से अर्थात् वक्तृज्ञान रूप कारण में रहनेवाले प्रमात्व रूप गुण से ही प्रामाण्य की उत्पत्ति होती है। शब्द का कारण है वक्ता में रहनेवाला ज्ञान, वक्ता के ज्ञान रूप इस कारण में रहनेवाला (प्रमात्व का उत्पादक ) गुण है उस ज्ञान की 'यथार्थता' और अयथार्थत्व का उत्पादक दोष है उस ज्ञान की अयथार्थता। इनमें वक्ता में रहनेवाले ज्ञान की यथार्थता रूप गुण को वाक्य के प्रामाण्य का कारण मानें तो फिर ( यही निष्पन्न होता है कि ) वक्तृज्ञान रूप कारण मे रहनेवाले उसके प्रमात्व रूप गुण से ही शब्द से उत्पन्न ज्ञान में प्रमाण्य की उत्पत्ति होती है, ज्ञान स्वरूपतः अपने सामान्य कारणों से प्रामाण्य को लिये हुए ही उत्पन्न नहीं होता है । इस प्रकार शब्द में परतः प्रामाण्य के स्वीकृत हो जाने पर अनुमानादि ज्ञानों में भी प्रामाण्य के 'परतस्त्व' की यह स्थिति सुव्यवस्थ हो जाएगी। इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि जिस प्रकार वक्ता के ज्ञान रूप कारण में रहनेवाली यथार्थता रूप गुण से शब्द के द्वारा उत्पन्न ज्ञान में यथार्थता (प्रमात्व) की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार उन सभी ज्ञानों में~जिनके प्रसङ्ग में ( स्वतःप्रामाण्यवादो मीमांसकों के साथ) विवाद है - कारण में रहनेवाले कथित 'गुण' से ही प्रामाण्य की उत्पत्ति होती है, चूंकि वे सभी ज्ञान प्रमाण हैं।
(प्र०) शब्द प्रमाण स्थल में भी वक्ता के ज्ञान का प्रमात्वरूप 'गुण' इतना ही करता है कि शब्द ज्ञान में अप्रमात्व को लानेवाले दोषों को हटा देता है, प्रामाण्य की उत्पत्ति के लिए वह ( गुण ) कुछ भी नहीं करता (जो जिसकी उत्पत्ति के लिए कुछ भी नहीं करता, वह उसका कारण कैसे हो सकता है ?) अतः शाब्दज्ञान को दृष्टान्त रूप से
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