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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
५२५ न्यायकन्दली पाटवादखिलविशेषग्रहणाद् वा प्रमृष्टसन्देहकलङ्कलेखमेव प्रमाणमुदेति, तत्र तदुत्पत्त्यैवार्थनिश्चये प्रमातुनिराकाङ्क्षत्वात् प्रतिपित्सव नास्तीति न प्रमाणान्तरानुसरणम्। यस्तु तत्रापि ज्ञानस्योभयथा दर्शनेन सन्देहमारोपयति स न शक्नोत्यारोपयितुम्, तदर्थनिश्चयेनैव पराहतत्वात् । यथाह मण्डनो ब्रह्मसिद्धौ
"अनाश्वासो ज्ञायमाने ज्ञानेनैवापबाध्यते” इति । यदि प्रवृत्त्यर्थं प्रामाण्यं विजिज्ञास्यते ? यत्रानवधारितप्रामाण्यस्यैवार्थसंशयात प्रवृत्तिरभूत् तत्रार्थप्राप्तिपरितुष्टस्य प्रामाण्ये जिज्ञासा नास्ति, कथं प्रवृत्तिसामर्थ्यात् प्रमाणस्यार्थवत्त्वावधारणम् ? न तत्रापि कर्षकस्येव बीजपरीक्षार्थ प्रामाण्यपरीक्षार्थमेव प्रवृत्तिः, अस्यास्त्येव तदर्थता। यस्य प्रामाण्यसन्देहादर्थ सन्दिहानस्यार्थग्रहणार्थमेव प्रवृत्तिर्जाता, तस्यार्थप्राप्तिचरितार्थस्यानभिसंहितमपि दूर नहीं हो सकेगा। जहाँ अभ्यास की अत्यन्त पटुता के कारण अथवा विषय के सभी अंशों को खूब अच्छी तरह देखने के कारण ऐमा ही प्रमाण उपस्थित होता है, जिसमें सन्देह कलङ्क की रेखा भी नहीं रहती है, वहाँ प्रमाण केवल अपनी उत्पत्ति के द्वारा ही अर्थ का अवधारण करा देता है ( इसी से प्रमाता पुरुष की प्रामाण्य ज्ञान की आकाङ्क्षा शान्त हो जाती है ), अतः ऐसे स्थलों में प्रामाण्य ज्ञान के लिए दूसरे प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। जो कोई 'ज्ञान प्रमा और अप्रमा दोनों प्रकार का होता है' केवल यह समझने के कारण ही ऐसे स्थलों में भी प्रामाण्य सन्देह का आरोप करते हैं, उनका यह आरोप भी सम्भव नहीं है, क्योंकि तदर्थ विषयक निश्चय हो जाने के कारण तदर्थ विषयक प्रामाण्य सन्देह नहीं हो सकता। जैसा कि आचार्य मण्डन ने ब्रह्मसिद्धि में कहा है कि किसी विषयक ज्ञान में उत्पन्न अविश्वास उस विषयक निश्चय के द्वारा ही पराभूत हो सकता है, ( अर्थात् इसके लिए ज्ञान गत प्रामाण्य का अवधारण अपेक्षित नहीं है ) ।
___ यदि प्रवृत्ति के लिए ज्ञान के प्रामाण्य को जिज्ञासा मानते हैं, तो फिर जो प्रवृत्ति अर्थ के संशय से ही होती है, जिस प्रवृत्ति के आश्रयीभूत पुरुष में प्रामाण्य का अवधारण है ही नहीं, ( उस प्रवृत्ति की उपपत्ति कैसे होगी ?) क्योंकि वह पुरुष तो उसी संशयजनित प्रवृत्ति के द्वारा अभीष्ट अर्थ को पाकर सन्तुष्ट है, उसमें प्रामाण्य की जिज्ञासा क्यों कर उठेगी ? फिर कैसे कहते हैं कि प्रवृत्ति की सफलता से प्रमाण में अर्थवत्त्व का अवधारण होता है ? जिस प्रकार कोई किसान बीज की परीक्षा को ही प्रधान प्रयोजन मानकर प्रवृत्त होता है, उस प्रकार की स्थिति प्रकृत में नहीं है, क्योंकि वह सन्दिग्ध पुरुष उस अर्थ का प्रार्थी है । किन्तु जहाँ प्रामाण्य-सन्देह के कारण उत्पन्न अर्थ सन्देह से ही अर्थ ग्रहण में पुरुष प्रवृत्त होता है और उसको प्रवृत्ति सफल भी होती है, उस प्रवृत्ति की सफलता से परितुष्ट पुरुष को भी प्रवृत्ति की सफलता से प्रामाण्य की अनुमिति अवश्य होती है,
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