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प्रकरणम् ]
भावानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् प्रसिद्धाभिनयस्य चेष्टया प्रतिपत्तिदर्शनात् तदप्यनुमानमेव ।
चेष्टा के साथ सङ्केतित अर्थ के ज्ञान से युक्त पुरुष को ही उस चेष्टा से अर्थ का बोध होता है, अत: चेष्टा भी अनुमान प्रमाण के ही अन्तर्गत है ( अतिरिक्त प्रमाण नहीं )।
न्यायकन्दली दोषाभावाद विपर्ययाभावः, प्रामाण्यं त्विन्द्रियादिस्वरूपमात्राधीनमिति चेत् ? दोषः प्रामाण्योत्पत्तिः प्रतिबध्यते, विपर्ययः पुनरिन्द्रियादिस्वरूपाधीन इति कस्मान्न कल्प्यते ? दोषान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वाद् विपर्ययस्य नैवं कल्पनेति चेत् ? प्रामाण्यस्यापि दोषाभावान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वदर्शनान्न तत्कल्पनेति समानम् । नहि तदस्ति प्रमाणं यद् दोषाणां प्रागभावं प्रध्वंसाभावं नापेक्षते।
एवं प्रवृत्त्यादिकार्यजननव्यापारोऽपि प्रमाणस्य परत एव न स्वरूपमात्राधीनः, उपकारापकारादिसापेक्षस्य प्रवृत्त्यादिकार्यजनकत्वादित्येषा दिक् ।
हस्तस्यावाङ्मुखाकुञ्चनादाह्वानं प्रतीयते, पराङ्मुखोत्क्षेपणाच्च विसर्जनप्रतीतिर्भवति, एतत्प्रमाणान्तरमिच्छन्ति केचित् । तान् प्रत्याह-प्रसिद्धाभिनयदोषाभाव में भी कारणता अन्वय और व्यतिरेक से सिद्ध है। (प्र०) दीप के अभाव से तो विपर्यय ( अप्रमा ) का अभाव ही उत्पन्न होता है, प्रामाण्य तो ज्ञान सामान्य के लिए अपेक्षित इन्द्रियादि कारण समुदाय से ही उत्पन्न होता है । (उ०) इसी प्रकार यह कल्पना भी तो की जा सकती है कि दोषों से प्रामाण्य की उत्पत्ति ही केवल प्रतिरुद्ध होती है, इन्द्रियादि साधारण कारणों से ही विपर्यय की उत्पत्ति होती है। यदि यह कहें कि (प्र०) विपर्यय के साथ ही दोष का अन्वय और व्यतिरेक दोनों हैं, अतः यह (दोष से प्रामाण्य की उत्पत्ति के प्रतिरोध की) कल्पना नहीं की जा सकती ? (उ.) इसी प्रकार 'प्रामाण्य के साथ ही दोषाभाव का अन्वय और व्यतिरेक दोनों देखे जाते हैं, अतः दोषाभाव से प्रामाण्य की उत्पत्ति होती है' यह कल्पना भी तुल्य युक्ति से की जा सकती है; क्योंकि ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं है जो अपने प्रमाज्ञान रूप कार्य के लिए दोषों के प्रागभाव या ध्वंस रूप अभाव की अपेक्षा नहीं करता।
इसी प्रकार चूंकि प्रमाण विषय में उपकारकत्वबुद्धि को सहायता से ही प्रवृत्तियों को उत्पन्न करते है, विषय में अपकारकत्व बुद्धि के सहयोग से ही प्रमाण के द्वारा निवृत्ति की उत्पत्ति होती है, अतः प्रमाण प्रवृत्त्यादि कार्यों के उत्पादन में भी परापेक्षी ही है ( केवल प्रवृत्त्यादि कार्यों की उत्पत्ति भी स्वत: नहीं होती है ), यही परतः प्रामाण्यवादियों की दृष्टि है।
हाथ को अपनी तरफ मोड़ने की 'आकुञ्चन' नाम की क्रिया से अपने तरफ बुलाने का बोध होता है, एवं हाथ को बाहर की तरफ फैलाने की प्रसारण नाम की क्रिया से बाहर जाने की आज्ञा का बोध होता है। इस बोध के लिए कोई उक्त क्रिया
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