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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे अनुमान
न्यायकन्दली विषयः कार्यकारणभाव एकत्र निश्चीयमानः सर्वत्र विनिश्चितो भवति, सामान्यस्यैकत्वादिति चेत् ? अस्माभिरपीत्थमेव सर्वत्र निश्चीयमानो नियमः किं भवद्भ्यो न रोचते ? किञ्च, भवतां प्रत्यक्षागोचरः सामान्येन कार्यकारणभावः, अनुभवतोsवस्तुत्वात्, व्यक्तयस्तादृश्यः। तासु सर्वाणि प्रत्यक्षेण गृह्यन्ते। न चातीतानागतानां व्यक्तीनां मनसा संकलनमिति न्याय्यम्, मनसो बहिरर्थे स्वातन्त्र्येऽन्ध. बधिराद्यभावप्रसङ्गात् । दृष्टासु व्यक्तिषु कार्यकारणभावोऽध्यवसायश्चादृष्टासु नानुमानोदयस्तदन्यत्वात् । नापि व्यक्तीनां साध्यसाधनभावो युक्तः, परस्परमनन्वितत्वात् । न च तासामेकेन सामान्येनोपग्रहः, वस्त्ववस्तुनोः सम्बन्धाभावात्, असम्बद्धस्योपग्राहकत्वे चातिप्रसङ्गात् । तत्किविषयः प्रत्यक्षसाधनस्तदुत्पादविनिश्चयः, यस्मादनुमानप्रवृत्तिरिति न विद्मः। का एक हेतु व्यक्ति के साथ नहीं, क्योंकि व्यक्ति क्षणिक हैं। अतः उनको बार बार साथ देखना सम्भव नहीं है । तस्मात् अनग्निव्यावृत ( अपोह या अग्नित्व जाति ) अधूम व्यावृत्त ( अपोह या धूमत्व जाति ) इन दोनों का सामान्य षियक कार्यकारणभाव ही गृहीत होता है। 'धूम सामान्य की उत्पत्ति वह्निसामान्य से होती है' यह निश्चित हो जाने पर सभी धूमों और सभी वह्नियों में कार्यकारणभाव गृहीत हो जाता है, क्योंकि सामान्य ( अपोह ) एक ही है। ( उ०) इसी प्रकार जब हम हेतु सामान्य में साध्य सामान्य के नियम ( व्याप्ति ) का उपपादन करते हैं, तो आप लोगों को क्यों पसन्द नहीं आता ? आप लोगों क, सामान्य ( अपोह) चूंकि अभाव रूप है, अतः सामान्यों में आप लोग (बौद्धगण ) कार्यकारणभाव का अनुभव नहीं कर सकते । व्यक्ति सभी प्रत्यक्ष के विषय हैं अतः उनमें कार्यकारणभाव का ग्रहण होता है । यह कहना भी उचित नहीं है कि (प्र. ) भूत और भविष्य व्यक्तियों का (चक्षुरादि से ज्ञान सम्भव न होने पर भी) मन से ग्रहण हो सकता है ( अतः अतीत और अनागत व्यक्तियों में भी कार्यकारणभाव का ग्रहण असम्भव नहीं है)। ( उ०) ( यह सम्भव इस लिए नहीं है कि ) मन को यदि बाह्य अर्थों के ग्रहण में स्वतन्त्र ( अथात् चक्षुरादि निरपेक्ष) मान लिया जाय तो जगत् में कोई गूंगा या बहरा न रह जाएगा। इस प्रकार भी बौद्धों के मत से उपपत्ति नहीं की जा सकती कि प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत व्यक्तियों में ही कार्यकारण भाव गृहीत हो सकता है, किन्तु ( व्याप्ति ) का निश्चय अशष्ट व्यक्तियों में भी होता है, कि व्यक्ति भिन्न भिन्न हैं। व्यक्तियों में परस्पर कार्यकारणभाव भी सम्भव नहीं है, क्योंकि वे परस्पर असम्बद्ध हैं। उन सभी व्यक्तियों का एक सामान्य धर्म ( अपोह ) के द्वारा संग्रह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि वस्तु ( भाव ) और अवस्तु (अभाव) इन दोनों में सम्बन्ध हो ही नहीं सकता, यदि सम्बन्ध के न रहने पर भी संग्रह मानें तो (अघटव्यावृत्ति रूप अपोह से पट व्यक्तियों का संग्रह रूप ) अतिप्रसङ्ग होगा। अतः यह
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