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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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५१६
श्रुतिस्मृतिलक्षणोऽप्याम्नायो वक्तृप्रामाण्यापेक्षः, तद्वचनादाम्नाय -
श्रुति एवं स्मृति रूपशब्द प्रमाणों का भी प्रामाण्य उनके वक्ताओं के प्रामाण्य केही अधीन है । यही बात 'तद्वचनादाभ्नायस्य प्रामाण्यम्” “लिङ्गाच्चानित्यः न्यायकन्दली
ननु यदि वक्तृद्वारेण शब्दोऽर्थावबोधकः, तदा वेदवाक्यादर्थ प्रत्ययो न घटते, वक्तुरभावादत आह- श्रुतिस्मृतिलक्षणोऽप्याभ्नायो वक्तृप्रामाण्यापेक्ष इति । न केवलं लौकिक आम्नायः, श्रुतिस्मृतिलक्षणोऽप्याम्नायो वक्तुः प्रामाण्यसपेक्ष्य प्रत्यायकः । शब्दो वक्त्रधीनदोषः, न त्वयमसुरभिगन्धवत् स्वभावत एव दुष्टः । यथोक्तम्—
शब्दे
कारणवर्णादिदोषा
वक्तृनराश्रयाः । नहि स्वभावतः शब्दो दुष्टोऽसुरभिगन्धवत् ॥
नित्यत्वे वेदस्य वक्तुरभावाद् दोषाणामनवकाशे सति निराशङ्कं प्रामाण्यं सिद्धयति, पौरुषेयत्वे तु निविचिकित्सं प्रामाण्यं न लभ्यते, कदाचित् पुरुषाणां रागद्वेषादिभिरयथार्थस्थापि वाक्यस्य दर्शनात् । तत्राह - " तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्” इति । तदित्यनागतावेक्षणन्यायेन “अस्मद्बुद्धिभ्यो लिङ्गमृषेः" इति
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( प्र० ) यदि वक्ता की विवक्षा के द्वारा ही शब्द अर्थ का बोधक है, तो फिर वेद वाक्यों से अर्थों का बोध न हो सकेगा, क्योंकि वेदों का कोई वक्ता नहीं है । इसी प्रश्न के समाधान के लिए "श्रुतिस्मृतिलक्षणोऽप्याम्नायो वक्तृप्रामाण्यापेक्षः” भाष्य का यह वाक्य लिखा गया है। अर्थात् केवल लौकिक 'आम्नाय' के द्वारा प्रमाबोध के उत्पादन के लिए ही वक्ता के प्रामाण्य की अपेक्षा नहीं है, किन्तु श्रुति एवं स्मृति रूप आम्नाय (शब्द) भी अपने द्वारा प्रमात्मक बोध के उत्पादन के लिए वक्ता के प्रामाण्य की अपेक्षा रखते हैं । क्योंकि शब्द दुर्गन्ध की तरह स्वतः ही दुष्ट नहीं है । उसमें तो वक्ता के दोष से ही दोष आते हैं । जैसा कहा गया है कि 'शब्द में कारणों के द्वारा वर्णों के जितने भी दोष भासित होते हैं, वे सभी वस्तुतः वक्ता पुरुष में रहनेवाले दोषों के कारण हो आते हैं । दुर्गन्ध की तरह शब्द स्वभावतः स्वयं दुष्ट नहीं हैं' ।
( प्र० ) वेदों को यदि नित्य मान लिया जाता है तो फिर उनमें निःशङ्क प्रामाण्य की सिद्धि होती है । यदि उन्हें पौरुषेय मानते हैं तो यह शङ्का बनी ही रहती है कि 'कदाचित् इसका कोई अंश अप्रमाण न हो' । क्योंकि कभी कभी ऐसा देखा जाता है कि रागद्वेष के कारण मनुष्य अयथार्थ ( बोषजनक ) वाक्य का भी प्रयोग करता है । इसी प्रश्न का उत्तर 'तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्' इत्यादि सूत्रों का उल्लेख करते हुए भाष्यकार ने दिया है । 'तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्' इस सूत्र में 'तत्' शब्द से 'आनेवाले भविष्यवस्तु को भी बुद्धि के द्वारा देखा जा सकता है' ( अनागता वेक्षण ) इस