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५२.
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमाने शब्दान्तर्भाव
न्यायकन्दली सूत्रे प्रतिपादितस्यास्मद्विशिष्टस्य वक्तुः परामर्शः, तद्वचनात् तेन विशिष्टेन पुरुषेण प्रणयनादाभ्नायस्य वेदस्य प्रामाण्यम् ।
__ अयमभिसन्धिः--दोषाभावप्रयुक्तं प्रामाण्यं न नित्यत्वप्रयुक्तम्, सत्यपि नित्यत्वे श्रोत्रमनसोरागन्तुकदोषैः क्वचिदप्रामाण्यात् । असत्यपि नित्यत्वे प्रमृष्टदोषाणां चक्षुरादीनां प्रामाण्यात् । दोषाश्च पुरुषविशेषे नैव सन्तीत्युपपादितम् । तेनैतत्प्रोक्तस्याम्नायस्य सत्यपि पौरुषेयत्वे प्रामाण्यम् । नहि यथार्थद्रष्टा प्रक्षीणरागद्वेषः कृपावानुपदेशाय प्रवृत्तोऽयथार्थमुपदिशतीति शङ्कामारोहति ।
___ अथ पुरुषविशेषप्रणीतो वेद इति कुत एषा प्रतीतिरिति ? सर्वैर्वर्णाश्रमिभिरविगानेन तदर्थपरिग्रहात् । यत्किञ्चनपुरुषप्रणीतत्वे तु वेदस्य बुद्धादिवाक्यवन्न सर्वेषां परीक्षकाणामविगानेन तदर्थानुष्ठानं स्यात्, कस्यचिदप्रा
न्याय से आगे 'अस्मद्बुद्धिभ्यो लिङ्गमृषेः' इस सत्र में कथित अस्मदादि साधारण जनों से उत्कृष्ट पुरुष का परामर्श अभिप्रेत है। 'तद्वचनात्' उस विशिष्ट पुरुष के द्वारा निर्मित होने के कारण ही आम्नाय' में अर्थात् वेद में प्रामाण्य है।
गूढ़ अभिप्राय यह है कि किसी भी प्रमाण में प्रामाण्य के लिए उसका नित्य होना आवश्यक नहीं है। उसमें दोषों का न रहना ही उसके प्रामाण्य के लिए पर्याप्त है । क्योंकि श्रोत्रेन्द्रिय और मन ये दोनों ही नित्य हैं (पौरुषेय नहीं हैं), किन्तु किसी कारण से जब इनमें दोष आ जाते हैं तो फिर ( ये नित्य होते हुए भी ) अप्रमाण हो जाते हैं। इसी प्रकार चक्षुरादि इन्द्रियाँ यद्यपि अनित्य हैं फिर भी जब तक दोषों से शून्य रहती हैं तब तक उनमें प्रामाण्य बना रहता है। अतः विशिष्ट पुरुष (रूप ईश्वर) के द्वारा रचित आम्नाय में उसके पौरुषेय होने पर भी प्रामाण्य के रहने में कोई बाधा नहीं है । इसकी तो शङ्का भी नहीं की जा सकती कि यथार्थ ज्ञान से युक्त और रागद्वेष से रहित कृपाशील महापुरुष जब उपदेश करने के लिए उद्यत होंगे तो वे अयथार्थ ( ज्ञान को उत्पन्न करनेवाले ) वाक्यों का भी कभी प्रयोग करेंगे।
(प्र.) यह कैसे समझते हैं कि विशिष्ट ( सर्वज्ञ ) पुरुष के द्वारा ही वेदों का निर्माण हुआ है ? ( उ०) चूंकि ब्राह्मणादि सभी वर्गों के लोग एवं ब्रह्मचर्यादि सभी आभमों के लोग बिना किसी विरोध के वेदों के द्वारा प्रतिपादित निर्देशों का पालन करते हैं। यदि किसी साधारण पुरुष से वेदों का निर्माण हुआ होता तो बुद्धिपूर्वक चलनेवाले इतने शिष्ट जनों के द्वारा वेदों के द्वारा कथित अर्थों का बिना विरोध के अनुष्ठान न होता, जैसे कि बुद्धादि के वाक्यों का अनुसरण कुछ ही व्यक्तियों के द्वारा हुआ, और वह भी बहुत विरोध के बाद । वेदों को बुद्धादि वाक्यों की तरह अप्रामाणिक मानने पर वर्णाश्रमियों में से भी किसी को अप्रामाण्य ज्ञान के द्वारा वेदों से अप्रमा ज्ञान भी होता। ( इससे यह अनुमान होता है कि ) जिसमें सभी को प्रामाण्य यह होता है वह प्रमाण ही होता है (अप्रमाण नहीं), जैसे कि प्रत्य
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