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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमाने शब्दान्तर्भाव
न्यायकन्दली प्रतीयात शब्दस्यार्थस्य तयोः सम्बन्धस्य च संभवात् । ज्ञातः सम्बन्धोऽर्थप्रत्ययहेतुर्न सत्तामात्रेणेति चेत् ? यथाहुः
ज्ञापकत्वाद्धि सम्बन्धः स्वात्मज्ञानमपेक्षते । तेनासौ विद्यमानोऽपि नागृहीतः प्रकाशकः ॥ इति ।
कीदृशं तस्य सम्बन्धस्य ज्ञानम् ? अस्य शब्दस्यायमर्थों वाच्य इत्ये. वंभूतमिति चेत् ? तत् कस्माद् भवति ? वृद्धव्यवहारादिति चेत् ? एतदेवाभिधानाभिधेयालम्बनज्ञानं परस्परं व्यवहरद्भिवृद्धैः पार्श्वस्थस्य बालकस्य क्रियमाणं सङ्कतो व्युत्पत्तिरिति चाभिधीयमानं संस्कारद्वारेणार्थप्रतीतिकारणमस्तु, किं सम्बन्धान्तरेण ? शब्दस्य हि निजं सामर्थ्यं शब्दत्वम्, आगन्तुकं च सामर्थ्य सङ्घतो विशिष्टा चानुपूर्वी। तस्मादेव सामर्थ्य द्वितयात् तदर्थप्रत्ययोपपत्तिः, सम्बन्धान्तरकल्पनावैयर्थ्यम्, दृष्टात् कार्योपपत्तावदृष्टकल्पनानवकाशात् । सङ्कत को जाननेवाले पुरुष को शब्द से अर्थ का बोध होता है, उसी प्रकार अव्युत्पन्न ( उक्त सङ्केत को न जाननेवाले ) पुरुष को भी शब्द से अर्थ के बोध की आपत्ति होगी, क्योंकि वहाँ भी शब्द और अर्थ इन दोनों का शक्ति रूप सम्बन्ध है ही। (प्र.) उक्त सम्बन्ध ज्ञात होकर ही अर्थ बोध के प्रति कारण हैं, केवल सत्ता मात्र से नहीं ( अतः अव्युत्पन्न पुरुष को अर्थबोध नही होता है)। जैसा कि आचार्यों ने कहा है कि चूंकि शब्द का शक्ति रूप सम्बन्ध ज्ञापक हेतु है (उत्पादक नहीं), अतः वह अपने अर्थज्ञान रूप कार्य के उत्पादन में अपने ज्ञान की अपेक्षा रखता है, यही कारण है कि शब्द में विद्यमान रहने पर भी जब तक वह ज्ञात नहीं हो जाता, तब तक अर्थ को प्रकाशित नहीं कर सकता। (उ०) शक्ति रूप सम्बन्ध का कैसा ज्ञान अर्थबोध के लिए अपेक्षित है ? यदि यह कहें कि 'इस शब्द का यह अर्थ वाच्य है' इस प्रकार का ज्ञान अपेक्षित है, तो फिर यह पूछना है कि यह ज्ञान किससे उत्पन्न होता है ? यदि इसका यह उत्तर दें कि 'यह ज्ञान वृद्धों के व्यवहार से उत्पन्न होता है तो फिर 'अभिधानाधेय' के इस ज्ञान को ही अपने संस्कार के द्वारा कारण क्यों नहीं मान लेते ? जो शब्दों का व्यवहार करते हुए वृद्धजनों से बालकों में उत्पन्न होता है, और जिसे 'सङ्केत' एवं 'व्युत्पत्ति' भी कहते हैं। इसके लिए शब्द का अर्थ में विलक्षण सम्बन्ध मानने का क्या प्रयोजन है ? कहने का अभिप्राय है कि शब्द की अपनी स्वाभाविक शक्ति शब्दत्व रूप ही है, एवं पुरुषों के द्वारा उसमें दो शक्तियाँ उत्पन्न की जाती हैं, जिनमें पहिली है सङ्केत, और दूसरी है विशेष प्रकार की आनुपूर्वी ( वर्गों का विन्यास )। इन्हीं दोनों सामों से शब्द के द्वारा अर्थ की उत्पत्ति हो जाएगी। अतः शब्द का अर्थ में स्वतन्त्र सम्बन्ध की कल्पना व्यर्थ है, क्योंकि दृष्ट कारणों से ही कार्य की उत्पत्ति संभावित होने पर अतीन्द्रिय कारणों की कल्पना उचित नहीं है ।
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