________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
५०१
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली विशेषनिष्ठं व्याप्तिग्रहणमाचक्ष्महे। विशेषहान्या सामान्येन व्याप्तिग्रहणे तु सर्वत्रैव निर्विशङ्कः प्रत्ययः, तस्य सर्वत्रैकरूपत्वात् । किं व्यक्तयो व्याप्तावप्रविष्टा एव ? को वै ब्रूते न प्रविष्टा इति। किन्तु सामान्यरूपतया, न विशेषरूपेण । अत एव धूमसंवित्त्या वह्निमात्रमेवानुसन्दधानस्तमनुधावति, न विशेषमाद्रियते । यदि तु सामान्येन सर्वत्र निश्चितेऽपि नियमे निष्प्रामाणिकैराशङ्का क्रियते, तदा त्वत्पक्षेऽपि प्रत्यक्षेण दृष्टासु वह्निधूमव्यक्तिषु गृहीतेऽपि कार्यकारणभावे देशकालव्यवहितात् तद्भावसन्देहादत्रानुमानाप्रवृत्ति को निवारयति ?
अथोच्यते--भूयोदर्शनेन कार्यकारणभावो निर्धार्यते, सकृद्दर्शनेन तदुपाधिजत्वशङ्काया अनिवर्तनात् । भूयोदर्शनं च सामान्यविषयम्, क्षणिकानां व्यक्तीनां पुनः पुनदर्शनाभावात् । तेनानग्निव्यावृत्तस्याधुमव्यावृत्तस्य च सामान्य
अनन्त हेतु (धूमादि ) व्यक्तियों में ( वह्नि आदि ) साध्य के नियम ( व्याप्ति ) का (प्रत्यक्ष रूप ) ग्रहण कैसे होगा? ( उ०) हम लोग विशेष व्यक्तियों में अलग अलग व्याप्तिग्रहण नहीं मानते, किन्तु विशेष को छोड़कर केवल हेतुसामान्य में साध्यसामान्य की व्याप्ति का ग्रहण मानने से ही सभी हेतुओं में व्याप्ति का शङ्का से सर्वथा रहित निश्चय हो जाएगा। क्योंकि सामान्यमुखी व्याप्ति सभी व्यक्तियों में समान है। (प्र०) तो क्या व्याप्तिग्रहण में विशेष्य रूप से ( हेतु) व्यक्तियों का प्रवेश नहीं होता ? (उ०) कौन कहता है कि व्याप्ति के ग्रहण में व्यक्तियों का प्रवेश नहीं होता है। 'व्याप्ति सामान्य विषयक ही है, विशेष विषयक नहीं' इसका इतना ही अभिप्राय है कि व्याप्तिबुद्धि में विशेष भी सामान्य रूप से ही भासित होते हैं, अपने असाधारण तत्तद्वयक्तित्वादि रूपों से नहीं। अत एव धूम के ज्ञान से वह्नि सामान्य को अनुमिति के द्वारा प्रमाता वह्नि सामान्य का ही अनुधावन करता है, किसी विशेष प्रकार के वह्नि का आदर वह नहीं करता। यदि हेतु सामान्य में साध्य सामान्य की व्याप्ति के निश्चित हो जाने पर भी अप्रामाणिक लोग यह शङ्का करें कि तुम्हारे मत में भी यह कहा जा सकता है कि प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत धूम और प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत वह्नि इन दोनों में कार्यकारणभाव के गृहीत होने पर भी विभिन्न देशों के धूमों और वह्नियों में एवं विभिन्न काल के धूमों और चह्नियों में कार्यकारणभाव का सन्देह बना ही रहेगा तो फिर इस सन्देह के कारण सभी अनुमानों के उच्छेद का निवारण कौन कर सकेगा ?
यदि यह कहें कि (प्र.) हेतु और साध्य को बार बार एक स्थान में देखने ( भूयोदर्शन ) से दोनों में कार्यकारणभाव का निश्चय होता है। कहीं एक बार हेतु और साध्य दोनों में सामानाधिकरण्य के देखने पर भी यह संशय रह ही जाता है कि इन दोनों का सम्बन्ध स्वाभाविक हे, या औपाधिक ? बार बार का यह देखना (भूयोदर्शन ) साध्य सामान्य का हेतु सामान्य के साथ ही हो सकता है, एक साध्य व्यक्ति
For Private And Personal