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সন্ধত] भाषानुवादसहितम्
४६३ न्यायकन्दली पश्चात् कारणानुपलम्भादनुपलम्भ इति कार्यस्य द्वावनुपलम्भावेक उपलम्भः, कारणस्य चोपलम्भानुपलम्भाविति । एवमुपलम्भानुपलम्भैः पञ्चभिः सत्येवाग्नौ धूमस्य भावोऽसत्यभाव इति निश्चीयते । कार्यस्यैतदेव कार्यत्वं यत् तस्मिन् सत्येव भावोऽसत्यभाव इति तादात्म्यप्रतीत्याप्यविनामावो निश्चीयते । भावस्य न स्वभावव्यभिचारः, निःस्वभावत्वप्रसङ्गात् ।
तादात्म्यनिश्चयो विपक्षे बाधकस्य प्रमाणप्रवृत्त्या सिद्धयति । अप्रवृत्ते तु बाधके शतशः सहभावदर्शनेऽपि कदाचिदेत द्विपक्षे स्यादिति शङ्कायाः को निवारयिता प्रभवति ? तदुक्तम्
कार्यकारणभावाद् वा स्वभावाद वा नियामकात् ।
अविनाभावनियमोऽदर्शनान्न तु दर्शनात् ॥ इति । कार्यकारणभावान्नियामकात स्वभावाद वा नियामकादविनाभावनियमः, न सपने दर्शनाद् विपक्षे चादर्शनादिति । होने के बाद भी कारण की अनुपलब्धि से कार्य की (पुनः ) अनुपलब्धि, इस प्रकार कार्य का एक उपलम्भ और दो अनुपलम्भ ये तीन होते हैं। एवं कारण का (१) उपलम्भ और (२) कारण का अनुपलम्भ ये दो हैं। इन उपलम्भों और अनुपलम्भों को मिला. कर इन्हीं पाँच कारणों के रहने पर यह निश्चय होता है कि वह्नि के रहने से ही धम की सत्ता है, और वह्नि के न रहने से धम की सत्ता नहीं रहती है। कोई भी वस्तु 'काय' नाम से इसी लिए अभिहित होती है कि कारण के रहने से ही उसकी सत्ता होती है, और कारण के न रहने से उसकी सत्ता नहीं रहती है ( अर्थात् 'कार्य' वही है जिसकी सत्ता कारण की सत्ता के अधीन हो, और कारण को सत्ता न रहने पर जो सत्ता का लाभ न कर सके ) हेतु में साध्य की तादात्म्य प्रतीति से भी अविनाभाव (या व्याप्ति ) का निश्चय होता है। यह नहीं हो सकता कि वस्तुओं का स्वभाव उनमें कभी रहे और कभी नहीं, ऐसा मानने पर तो वस्तुओं का कोई स्वभाव ही नहीं रह जाएगा। जिस धर्म के बिना भी धर्मी रह सके वह धर्म उस धर्मी का 'स्वभाव' कैसे होगा ? विपक्ष में बाधकप्रमाण की प्रवृत्ति से हो हेतु में साध्य का तादात्म्य निश्चित्त होता है । यदि विपक्ष में बाधक प्रमाण की प्रवृत्ति न हो तो फिर सैकड़ों स्थानों में साध्य और हेतु दोनों को साथ देखने पर भी 'जहाँ साध्य नहीं है, वहाँ भी यह हेतु कभी रह सकता है' इस शङ्का का निवारण कौन करेगा?
यही बात 'कार्यकारणभावाद्वा' इत्यादि श्लोक के द्वारा इस प्रकार कही गयी है कि कार्यकारणभाव रूप नियामक और स्वभाव ( तादात्म्य ) रूप नियामक इन दोनों से ही अविनाभाव का निश्चय होता है, हेतु का सपक्ष में दर्शन और विपक्ष में अदर्शन से ( अविनाभाव का निश्चय नहीं होता है)।
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