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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे अनुमान
न्यायकन्दली अत्रोच्यते-किं यत्र तादात्म्यतदुत्पत्ती तत्राव्यभिचार: ? कि वा यत्राव्यभिचारस्तत्र तादात्म्यतदुत्पत्ती ? न तावदाद्यः कल्पः, सत्यपि तदुत्पादे धमधर्मस्य पार्थिवत्वादेरग्निव्यभिचारात् । सत्यपि तादात्म्ये वृक्षत्वस्य विशेषाद् व्यभिचारात् । अथ यत्राव्यभिचारस्तत्र तादात्म्य. तदुत्पत्ती, तमुव्यभिचारसत्त्वे तयोर्गमकत्वम् । एवं चेत्, अव्यभिचार एवास्तु गमकः, कि तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्याम् ? कार्यमपि हि न कार्यमित्येव गमयतीति, नापि स्वभावः स्वभाव इति, कि तहि ? तदव्यभिचारीति, अव्यभिचार एव गमकत्वे कारणं न तादात्म्यतदुत्पत्ती, व्यभिचारात् । न चैवमुपपत्तिमारोहति धूमो वह्निना क्रियते न पार्थिवत्वादयस्तद्धर्मा इति, वस्तुनो निर्भागत्वात् । नान्येतदुपलब्धं शिशपा वृक्षात्मिका न वृक्षः शिशपात्मकः, धवखदिरादिसाधारणत्वादिति, तयोरभेदात् ।
इस प्रसङ्ग में हम (वैशेषिक ) लोग पूछते हैं कि (१) क्या जिस साध्य का तादात्म्य जिस हेतु में रहता है, उसी हेतु में उस साध्य का अव्यभिचार (व्याप्ति ) रहता है ? एवं जिस साध्य से जिस हेतु की उत्पत्ति होती है, उसी हेतु में उस साध्य का अव्यभिचार ( व्याप्ति ) रहता है ? (२) अथवा जिस हेतु में साध्य की व्याप्ति रहती है, उसी हेतु में उस साध्य का तादात्म्य या जन्यत्व रहता है ? इन दोनों में प्रथम कल्प इस लिए ठीक नहीं है कि वह्नि से धूम की उत्पत्ति होने पर भी धूम के पार्थिवत्वादि धर्मों के साथ वह्नि का व्यभिचार है ( अतः पार्थिवत्वादि धर्म से अभिन्न धूम के साथ वह्नि का व्यभिचार भी है ही, क्योंकि धर्म और धर्मी आपके मत से एक हैं )। एवं ('वृक्षः शिशपायाः' इत्यादि स्थलों में) शिशपा में यद्यपि वृक्ष का तादात्म्य है, फिर भी वृक्षत्व में 'विशेष' का अर्थात् शिशपा का व्यभिचार है (क्योंकि विल्वादि वृक्ष होने पर भी शिशपा नहीं है । ) यदि उसका यह अर्थ करें कि जिस हेतु में साध्य का अव्यभिचार है, वहाँ साध्य निरूपित उत्पत्ति (साध्य रूप कारण जन्यत्व) या साध्य का तादात्म्य अवश्य है । तो फिर इसका अभिप्राय यह हुआ कि हेतु में साध्य के अव्यभिचार के रहने के कारण ही उस हेत में रहनेवाले साध्य के तादात्म्य या साध्य रूप कारणजन्यत्व दोनों में साध्य को ज्ञापकता है। यदि यह स्थिति है तो फिर अव्यभिचार को ही साध्य का ज्ञापक मानिए ? साध्य के तादात्म्य या उत्पत्ति को इन सबों को बीच लाने का क्या प्रयोजन है ? क्योंकि हेतु साध्य से उत्पन्न होता है या साध्य से अभिन्न है, इन दोनों में से किसी भी कारण से हेतु में साध्य की ज्ञापकता नहीं है, किन्तु हेतु इस लिए साध्य का ज्ञापक है कि उसमें साध्य का अव्यभिचार है। (प्र.) धूम की उत्पत्ति तो वह्नि से होती है किन्तु धूम के पार्थिवत्वादि धर्म तो वह्नि से उत्पन्न नहीं होते । ( उ०) यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वस्तु का एक ही स्वरूप होता है (अतः धूम को यदि
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