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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
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[गुणे अनुमानन्यायकन्दली यदेवं शिशपाविकल्पो जातो न वृक्षविकल्पः, स वृक्षशब्दस्मृत्यभावापराधात शिशपाशब्दसंस्कारप्रबोधजन्मना शिशपाविकल्पेन चाशिशपाव्यावृत्तिपर्यवसितेन नावृक्षव्यावृत्तिरुपनीयते, सर्वविकल्पानां पर्यायत्वप्रसङ्गात् । गम्यगमकभावश्च व्यावृत्त्योरेव नानयोर्न वस्तुनः, तस्यान्वयाभावात् । अवृक्षव्यावृत्यशिशपाव्यावृत्ती च परस्परं भिन्ने, व्यावर्त्य भेदात् । अतो यथोक्तदोषानुपपत्तिरिति । अहो पूर्वापरानुसन्धाने परं कौशलं पण्डितानाम् ? तादात्म्यमनुमानबीजम्, साध्यसाधनभूतयोावृत्त्योः परस्परं भेद इति किमिदमिन्द्रजालम् ? वृक्षशिशपयोस्तादात्म्य
उसी प्रत्यक्ष के द्वारा उसके सभी धर्मों का भी प्रत्यक्ष हो जाता है। अतः उसका कौन सा अंश देखने से बच जाता है, जिसकी परीक्षा अन्य प्रमाणों से की जाय।"
तब यह बात रही कि ( उस ज्ञान में शिशपात्व की तरह वृक्षत्व भी यदि भासित होता है तो फिर ) उस विकल्प ( विशिष्ट ज्ञान ) का अभिलाप 'यह शिशपा है' इस शब्द के द्वारा क्यों होता है ? 'यह वृक्ष है' इस प्रकार के शब्दों के द्वारा क्यों नहीं? इस प्रश्न का यह उत्तर है कि उस समय वृक्ष शब्द की स्मृति नहीं रहती है। इसी स्मृति के न रहने के 'अपराध' से ही वृक्ष शब्द से उसका अभिलाप नहीं हो पाता । शिशपा शब्द की स्मृति से जिस शिंशपा विषयक विकल्प ज्ञान की उत्पत्ति होती है, उसका पर्यवसान 'अशिशपाव्यावृत्ति' रूप 'अपोह' में ही होता है, उससे 'अवृक्षव्यावृत्ति' रूप 'अपोह' का ज्ञान नहीं होता। यदि ऐसा हो तो सभी विशिष्ट ज्ञानों के बोधक शब्द एकार्थक हो जएंगे ( अर्थात् सभी ज्ञान एक विषयक हो जाएँगे )। एक की व्यावृत्ति ( अपोह ) ही दूसरी व्यावृत्ति की ज्ञापिका हो सकती है ( फलतः ज्ञाप्यज्ञापकभावसम्बन्ध दो अपोहो में ही हो सकता है ) किन्तु व्यावृत्ति के आश्रयों में ज्ञाप्यज्ञापकभाव नहीं हो सकता, क्योंकि (क्षणिक होने के कारण उनमें परस्पर सामानाधिकरण्य रूप) अन्वय ही सम्भव नहीं है। ( वृक्ष और शिंशपा इन दोनों के अभिन्न होने पर भी) अवृक्षव्यावृत्ति और अशिंशपाव्यावृत्ति ये दोनों अपोह तो भिन्न हैं क्योंकि दोनों अपोहों के व्यवच्छेद्य भिन्न हैं। अतः कथित (सभी ज्ञानों में एक विषयत्व की) आपत्ति नहीं है। ( उ०) यह तो आप जैसे पण्डितों का आगे और पीछे अनुसन्धान करने की अपूर्व ही चतुरता है, जिससे यह इन्द्रजाल सम्भव होता है कि तादात्म्य (अभेद ) को तो अनुमान का प्रयोजक मानते हैं, और कहते हैं कि साध्य और साध्य से अभिन्न हेतु इन दोनों को व्यावृत्तियाँ (अपोह)भिन्न
१. उक्त विवरण के अनुसार शिंशपात्व का यह स्वभाव निष्पन्न होता है कि वह केवल शिंशपा में ही रहे, और वृक्षत्व का यह स्वभाव निष्पन्न होता है कि वह शिंशपा में रहे और उससे भिन्न धवखदिरादि सभी वृक्षों में भी रहे, तो फिर विभिन्न स्वभाव की ये दोनों वस्तुएँ एक कैसे हो सकती हैं?
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