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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे अनुमान
प्रशस्तपादभाष्यम् यत्तु यथोक्तात् त्रिरूपाल्लिङ्गादेकेन धर्मेण द्वाभ्यां वा विपरीतं तदनुमेयस्याधिगमे लिङ्गं न भवतीति । एतदेवाह सूत्रकार:"अप्रसिद्धोऽनपदेशोऽसन् सन्दिग्धश्च" ( अ. ३ आ. १सू. १५) इति । उक्त प्रकार से कहे गये ( पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व रूप हेतुत्व के सम्पादक ) तीनों धर्मों में से एक या दो धर्मों से रहित कोई वस्तु साध्य की अनुमिति का नहीं (किन्तु हेत्वाभास) है । यही बात ( उनका हेत्वाभासत्व , सूत्रकार ने 'अप्रसिद्धोऽनपदेशोऽसन् सन्दिग्धश्च' इस सूत्र के द्वारा कही है।
न्यायकन्दली विपरीतमतो यत् स्यादिति द्वितीयश्लोकस्यार्थं विवृणोति-यत्त्विति । अनपदेश इति। अपदेशो हेतुर्न भवतीत्यपदेशोऽहेतुरित्यर्थः। अप्रसिद्ध इति विरुद्धासाधारणयोः परिग्रहः, तयोः साध्यधर्मेण सह प्रसिद्धयभावादहेतुत्वम्। असन्नित्यसिद्धस्यावरोधः, स हि सपक्षे साध्यधर्मेण सह प्रसिद्धोऽपि धमिणि वृत्त्यभावादहेतुः । सन्दिग्धश्चेत्यनैकान्तिकाभिधानम् । स हि धर्मिणि दृश्यमानः किं साध्यधर्मसहचरितः किं वा तद्रहित इति सन्दिग्धो भवति, न पुमरेकं धर्ममुपस्थापयितुं शक्नोति । उभयथा दृष्टत्वादहेतुः।
'यत्त' इत्यादि से 'विपरीतमतो यत् स्यात्' इस दूसरे श्लोक की व्याख्या करते हैं। कथित 'अप्रसिद्धोऽनपदेशोऽसन् सन्दिग्धश्च' इस सूत्र में प्रयुक्त 'अनपदेश' शब्द का 'अपदेशो हेतुर्न भवति' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'अहेतु' ( अर्थात् हेत्वाभास ) अर्थ है । उक्त सूत्र के 'अप्रसिद्ध' शब्द से विरुद्ध और असाधारण इन दोनों को ( 'हेत्वाभास के अन्तर्गत ) समझना चाहिए। ये दोनों इस लिए अहेतु हैं कि साध्य रूप धर्म के साथ इनकी 'प्रसिद्धि' नहीं है, अर्थात् निश्चय नहीं है, फलतः सपक्षसत्त्व नहीं है। 'असन्' शब्द से 'असिद्ध' नाम का हेत्वाभास अभिप्रेत है, क्योंकि असिद्ध हेत्वाभास सपक्ष में साध्य धर्म के साथ रहते हुए भी अर्थात् सपक्षवृत्ति होते हुए भी 'धर्मी' में अर्थात् पक्ष में ही नहीं रहता है, अतः वह हेत न होकर हेत्वाभास है। 'सन्दिग्धश्च' इस पद से 'अनैकान्तिक' को हेत्वाभास कहा गया है। अनैकान्तिक यद्यपि पक्ष में देखा जाता है, किन्तु यह सन्देह बना ही रहता है कि वह साध्य के साथ रहनेवाला है ? या साध्याभाव के साथ ? इसी सन्देह के कारण वह साध्य या साध्याभाव रूप किसी एक धर्म को निश्चितरूप से उपस्थित नहीं कर सकता, क्योंकि वह दोनों के साथ देखा जाता है, अतः वह हेतु नहीं है।
धर्मी ( हेतु) में धर्म ( साध्य ) की अन्वयव्याप्ति एवं व्यतिरेकव्याप्ति इन दोनों के रहने पर भी बोद्धा पुरुष को यदि 'यह हेतु इस साध्य से व्याप्त है' इस प्रकार
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