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प्रकरणम् ]
भाषांनुवादसहितम्
न्यायकन्दली करोति परस्य च वक्तुमिच्छति तस्य सर्वस्य प्रमेयत्वाभिधेयत्वप्राप्तेः । न चास्ति विशेषो विपक्षे सत्यव्यभिचारः कारणं न विपक्षाभावादिति । तेन प्रमेयत्वमभिधेयत्वं गमयति । व्यतिरेकी च सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्वादिति । अस्य पक्षादन्यः सर्व एव विपक्षः, तथापि हेतुत्वं विपर्ययसम्बन्धाव्यभिचारात् । घटादिज्वप्राणादिमत्त्वेन निरात्मकत्वस्य व्याप्तिरवगता, अप्राणादिमत्त्वस्य न जीवच्छरीरे निवृत्तिः प्रतीयते । तत्प्रतीत्या व्याप्तस्य निरात्मकत्वस्य निवृत्त्यनुमाम्।
अथ मन्यसे योऽर्थो नवागतस्तद्वय तिरेकोऽपि न शक्यते प्रत्येतुम, प्रतिषेधस्य विधिविषयत्वात् । आत्मा च न क्वचिदवगतः, कथं तस्य घटादिभ्यो
सकता), क्योंकि व्यभिचार की प्रतीति ही अन्वयी हेतु से साध्य की अनुमिति होने में बाधक है, सो प्रकृत में नहीं है । प्रमेयत्व और अभिधेयत्व दोनों में अन्वय या सामानाधिकरण्य अवश्य है क्योंकि सभी प्रमेयों में अभिधेयत्व की प्रतीति होती है। इन दोनों में व्यभिचार (एक को छोड़कर दूसरे का रहना) कहीं नहीं देखा जाता । एवं उन दोनों में कहीं व्यभिचार को शङ्का भी नहीं है, क्योंकि जो कोई भी स्थल व्यभिचार के लिए कोई सोचेगा या दूसरे को कहना चाहेगा, उन सभी स्थलों में अभिधेयत्व और प्रमेयत्व दोनों ही देखे जाते हैं (अतः इस अनुमान में कोई विपक्ष है ही नहीं)। जिस प्रकार जिन सब स्थलों में विपक्ष प्रसिद्ध है, उन सब स्थलों में यदि व्यभिचार नहीं है, तो वह हेतु अनुमिति का कारण होता है। उसी प्रकार जिन सब स्थलों में विपक्ष की सत्ता ही नहीं है, उन सब स्थलों में भी यदि व्यभिचार की उपलब्धि नहीं होती है तो वह हेतु साध्य का साधक क्यों नहीं होगा ? क्योंकि दोनों स्थितियों में कोई तात्त्विक अन्तर नहीं है। अतः प्रमेयत्व अवश्य ही अभिधेयत्व का ज्ञापक हेतु है । 'जीवच्छरीरं सात्मकं प्राणादिमत्त्वात्' इस अनुमान का हेतु ( केवल ) व्यतिरेकी है, क्योंकि पक्ष को छोड़कर और सभी पदार्थ इसके 'विपक्ष' है, फिर भी यह 'हेतु' है ही, क्योंकि (साध्य के) विपर्यय (अर्थात् अभाव का हेत्वभाव के साथ) व्यभिचार नहीं हैं। (साध्य का निरात्मकत्वरूप अभाव घटादि में है, उनमें हेतु का अप्राणादिमत्त्वरूप अभाव भी अवश्य हा है, इस प्रकार) अप्राणादिमत्त्वरूप हेत्वभाव के साथ निरात्मकत्वरूप साध्याभाव की व्याप्ति गृहीत है। इससे जीवित शरीर रूप (प्रकृत पक्ष में) अप्राणादिमत्त्वरूप (हेत्वभाव की) निवृत्ति अर्थात् अभाव का बोध होता है। जीवित शरीर में (अप्राणादिमत्त्वाभाव की) इस प्रतीति से उसमें निरात्मकत्व रूप साध्याभाव की निवृत्ति का अनुमान होता है ।
अगर यह समझते हों कि (प्र०) जिस वस्तु का ज्ञान नहीं होता है, उसके अभाव का भी ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि जिसकी कहीं सत्ता रहती है, उसी का कहीं प्रतिषेध भी
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