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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली सरणीयम् । तस्मादन्यथोच्यते, पक्षो नाम साध्यपर्यायः, साध्यं च तद् भवति यत् साधनमर्हति, सम्भाव्यमानप्रतिपक्षश्चार्थो न साधनमर्हति, वस्तुनो द्वैरूप्याभावादित्ययमपक्षधर्म एव । तथा प्रत्यक्षादिविरुद्धोऽपि पक्षो न भवति, रूपान्तरेण सिद्धस्य रूपान्तरेण साधनानहत्वात् । अतः प्रकरणसमकालात्ययापदिष्टावुभौ 'यदनुमेयेन सम्बद्धम्' इत्यन्तेनैव निराकृतौ, अनुमेयाभासाश्रयत्वात् । अतः (अर्थात् पक्षसत्त्वादि तीनों रूपों को ही हेतुत्व का प्रयोजक मानें तो प्रकरणपम और कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभासों में हेतुत्व का वारण किम प्रकार होगा ? अतः इस प्रश्न का हम लोग (सिद्धान्ती) दूसरा समाधान कहते हैं कि (हेतु के बल रूप) पक्षवृत्तित्वादि के घटकीभूत 'पक्ष' शब्द और साध्य' शब्द दोनों एक ही अर्थ के बोधक हैं। साध्य वह है जिसका कि साधन हो सके। किन्तु जिस साध्य के प्रतिपक्ष की सम्भावना रहती है, उसका साधन नहीं किया जा सकता, क्योंकि वस्तुओं के (परस्पर-विरुद्ध) दो रूप नहीं हो सकते' । अतः प्रकरणसम हेतु 'पक्षधर्म' ही नहीं है, अर्थात् साध्य से युक्त पक्षरूप अनुमेय से अभिन्न साध्य के साथ सम्बद्ध ही नहीं है, इसी प्रकार कालात्ययापदिष्ट हेतु भी 'प-धर्म' न होने के ही कारण हेतु' नहीं है, क्योंकि वह्नि की अनुष्णता प्रत्यक्ष से विरुद्ध है, एक प्रकार से सिद्ध वस्तु का दूसरे (विरुद्ध) रूप से साधन करना सम्भव नहीं है, अतः प्रकरणसम और कालात्ययापदिष्ट इन दोनों हेत्वाभासों मे हेतु का 'यदनुमेयेन सम्बद्धम्' इस वाक्य के द्वारा निर्दिष्ट विशेषण ही नहीं है । अत: 'यदनुमेयेन सम्बद्धम्' इसके उपादान से ही प्रकरण म और कालात्ययापदिष्ट दोनों हेत्वाभासों में हेतु लक्षण की अतिव्याप्ति हट जाती है।
१. अभिप्राय यह है कि 'शब्दो नित्योऽनित्यधर्मानुपलब्धेः' एवं 'शब्दोऽनित्यो नित्यधर्मानुपलब्धेः' इत्यादि प्रकरणसम के स्थल में नित्यत्वविशिष्ट शब्द और अनित्यत्वविशिष्ट शब्द ही 'साध्य' है। शब्दरूप पक्ष का नित्यत्व या अनित्यत्व दो में से कोई एक ही स्वरूप सत्य हो सकता है. अर्थात् शब्द नित्य ही हो सकता है या अनित्य हो, वह नित्य और अनित्य दोनों नहीं हो सकता। चूंकि अनुमान के समय शब्द में नित्यत्व या अनित्यत्व कोई भी सिद्ध नहीं है, अतः नित्यधर्मानुपलब्धि या अनित्यधर्मानुपलब्धि इन दोनों में से कोई भी हेतु 'अनुमेय' अर्थात् नित्यत्व या अनित्यत्वविशिष्ट शब्दरूप 'पक्ष' में विद्यमान नहीं है । अतः प्रकरणसम हेतु में हतुत्व का प्रयोजक 'पक्षवृत्तित्व' रूप धर्म ही नहीं है । सुतराम् 'अपक्षधर्म' होने के कारण ही प्रकरणसम 'असिद्ध' (स्वरूपासिद्ध) हेत्वाभास है, जिसकी सूचना 'यदनुमेयेन सम्बद्धम्' इस वाक्य से ही दे दी गयी है।
इसी प्रकार बाधित (कालात्ययापदिष्ट) हेतु भी 'असिद्ध' हेत्वाभास में ही अन्तभूत हो जाता है, क्योंकि वह्निरनुष्णो द्रव्यत्वात्' इत्यादि स्थलों में वह्नि में यद्यपि द्रव्यत्व है, किन्तु उसमें अनुष्णत्व के विरुद्ध उष्णत्व प्रत्यक्ष से सिद्ध है, अतः अनुष्णत्व बाधित है। अनुष्णत्वविशिष्ट वह्निरूप पक्ष में द्रव्यत्व की सत्ता नहीं है, क्योंकि अनुष्णत्व विशिष्ट वह्नि नाम की कोई वस्तु ही नहीं है । इसको भी सूचना 'यदनुमेयेन सम्बद्धम्' इसी वाक्य से दे दी गयी है।
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