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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे अनुमान
न्यायकन्दली विपक्षव्यापकवद्विपक्षकदेशवृत्तरप्यहेतुत्वावद्योतनार्थं सर्वस्मिन्नसदेवेति पदम् ।
केचित् प्रवादुका एवं वदन्ति–नावश्यं प्रमाणसिद्धो वैधHदृष्टान्त एव द्रष्टव्यः, यत्रेदं नास्ति तत्रेदमपि नास्ति' इति वचनादपि साध्यव्यावृत्त्या साधनव्यावृत्तिप्रतीतिसम्भवात् । तथा च तेषां ग्रन्थः
__तस्माद् वैधHदृष्टान्तोऽनिष्टोऽवश्यमिहाश्रयः ।
तदभावेऽपि तन्नेति वचनादपि तद्गतेः ॥ इति । तन्निवृत्त्यर्थं प्रमाणत इति । साध्यविपरीते यत् प्रमाणतोऽसल्लिङ्गं न तु वाङमात्रणेत्यर्थः । प्रमाणशून्यस्य वचनमात्रस्य सर्वत्र सम्भवे हेतुहेत्वाभासव्यवस्थानुपपत्तिप्रसङ्गः। अतिव्यापकमिदं लिङ्गलक्षणम्, प्रकरणसमे कालात्ययापदिष्टे च भावादिति चेत् ? अत्राह कश्चित्-प्रकरणसमकालात्ययापदिष्टावनैकान्तिक एवान्तर्भवतः, संदिग्धविपक्षे साध्यमिणि प्रकरणसमस्य भावानिश्चितविपक्षे च कालात्ययापदिष्टस्य वृत्तेः। तथा च प्रकरणसमः ग्यतः प्रकरण
लिए लिखा गया है कि जिस प्रकार सभी सपक्षों ( दृष्टान्तों) में रहनेवाली वस्तु में (साध्य के ज्ञापन करने का सामर्थ्यरूप) हेतुत्व है उसी प्रकार कुछ ही सपक्षों में रहनेवाली वस्तु में भी उक्त हेतुत्व है। 'सर्वस्मिन्नसदेव' यह वाक्य इसलिए दिया गया है कि जिस प्रकार सभी विपक्षों में रहनेवाला पदार्थ साध्य का ज्ञापक हेतु नहीं हो सकता, उसी प्रकार कुछ थोड़े से विपक्षों में रहनेवाला पदार्थ भी साध्य का ज्ञापक हेतु नहीं हो सकता। किसी सम्प्रदाय के लोगों ( बौद्धों) का कहना है कि 'वैधर्म्य दृष्टान्त में प्रमाण के द्वारा हेतु की असत्ता सिद्ध ही हो' यह कोई आवश्यक नहीं है, क्योंकि 'जहाँ साध्य नहीं है, वहाँ हेतु भी नहीं है' इस प्रकार के साधारण वाक्य से ही साध्य से शून्य सभी आश्रयों ( सभी विपक्षों) में हेतु की असत्ता की प्रतीति हो सकती है। जैसा कि उन लोगों का ( उक्त सिद्धान्त का समर्थक ) यह वचन है कि 'तस्मात् अनुमान के लिए वैधम्यं दृष्टान्तरूप आश्रय (प्रयोजक ) का मानना आवश्यक नहीं है, क्योंकि 'जहाँ साध्य नहीं है वहाँ हेतु भी नहीं है' इस वाक्य से भी उस ( साध्यशून्य आश्रय में हेतु के अभाव) की प्रतीति हो जाएगी' इस सिद्धान्त के खण्डन के लिए ही प्रकृत वाक्य में 'प्रमाणत:' पद दिया गया है। अर्थात् विपक्ष में हेतु की असत्ता प्रमाण से ही सिद्ध होनी चाहिए, प्रमाणशून्य केवल वचन मात्र के प्रयोग से प्रकृत में समाधान नहीं होगा, क्योंकि प्रमाणशून्य वचनों का प्रयोग तो सभी जगह सम्भव है, इससे 'यह हेतु है और हेत्वाभास है' इस प्रकार की व्यवस्था ही नहीं रह जाएगी। (प्र०) हेतु का यह लक्षण तो 'प्रकरणसम' और 'कालात्ययापदिष्ट' नाम के हेत्वाभासों में भी रहने के कारण अतिव्यापक ( अतिव्याप्त) है। इसके उत्तर में कोई कहते हैं कि ( उ०) प्रकरणसम और कालात्ययापदिष्ट इन दोनों का अन्तर्भाव भी 'अनैकान्तिक' नाम के हेत्वाभास में ही हो जाता है, क्योंकि सन्दिग्धविपक्ष रूप साध्य के धर्मी में (अर्थात् पक्ष में)
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