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प्रकरणम् ]
४६१
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
यदि मतं योऽयं तस्मृगस्याकाशादिनापि संयोगस्तस्य तरुसमवेतात् कर्मणी निष्पत्त्यनवकल्पनान्न तरो कर्भानुमानमिति कल्प्यताम् ? तहि देशान्तरसंयोगार्थ तरुमृगेऽपि कर्मान्तरम्, तरी तु कर्मकल्पना न निवर्तत एव । यदधिकरणं कार्य तदधिकरणं कारणमित्युत्सर्गस्तस्यैकत्र अभिधारेऽन्यत्र के आश्वासः ? शाखामृगसमवेतेन कर्मणा कल्पितेन शाखामृगस्थ तरुया देशान्तरेणापि रमं संयोगविभागयोरुत्पत्तेरुभयकर्मकल्पनानपयोग इति चे ? नवम्, प्रतिक हि लिङ्ग यत्रोपलभ्यते तत्र प्रतिबन्धकमुपस्थापयतीतोला स्वानुमानस्य सामग्री।
प्रतीति होती है, वह कर्म विषयक अनुमिति रूप है, जिसकी उत्पत्ति उन्न संयोग और विभाग रूप हेतुओं से होती है। (उ०) उक्त कथन में कुछ सार नहीं है, क्योंकि यदि कर्म का प्रत्यक्ष नहीं होता है एवं संयोग और विभाग से उसका अनुमान ही होता है तो फिर ( रायोग और विभाग तो उभयाश्रयी हैं ) अतः उन्के दूसरे आश्रयों (पूर्वदेश और उत्तर देशों ) में भी कर्म की अनुमति होनी चाहिए ( यो नहीं होती है ), किन्तु वृक्ष में जिस समय मूल भाग से अग्रभाग की तरफ और अग्रभाग से मूलभाग की तरफ बन्दर दौड़ लगाता रहता है, उस समय ( संयोग और विभाग के दूसरे आश्रय ) वृक्ष में 'चलति' यह प्रीति भी नहीं होती। यदि यह कहें कि ( वृक्ष के साथ संयुक्त) बन्दर का आकाशादि द्रव्यों के साथ भी तो संयोग है, सुतरम् वृक्ष में रहनेवाली क्रिया से उस संयोग की उत्पत्ति नहीं हो सकती, अत: वृक्ष में क्रिया का अनुमान नहीं हो सकता । (प्र०) तो फिर आकाशादि दूसरे देशों के साथ बानर के संयोग और विभाग के लिए बन्दर में ही ( वृक्ष में कपि के संयोगादि के उत्पादक कर्म से भिन्न ) दूसरे कर्म की ही कल्पना कीजिए, (उ०) इससे तो वृक्ष में क्रिया के अनुमान की निवृत्ति नहीं हो सकती। यह औत्सगिक नियम है कि कार्य के आश्रय में कारण को अवश्य ही रहना चाहिए । इस नियम में यदि यहाँ व्यभिचार हो ( अर्थात् कार्य के अधिकरण में कारण के न रहने पर या अन्यत्र रहने पर भी उस अधिक रण में कार्य की उत्पत्ति हो) तो फिर दूसरे स्थानों में ( कार्य के अधिक रण में कारण के नियमतः रहने के नियम में ) कौन सा विश्वास रह जाएगा? (प्र०) वानर में समवाय सम्बन्ध से अनुमित होनेवाली फ्रिया के द्वारा ही वानर का पृक्ष के साथ एवं आकाशादि दूसरे देशों के साथ भी संयोग और विभाग दोनो की उत्पत्ति हो सकती है, अतः वानर में ( वृक्ष गत संयोगादिजनक एवं आकाशादिगत संयोगादि के जनक) दो क्रियाओं की कल्पना का कोई उपयोग नहीं है । ( उ० ) ऐसी बात नहीं हो सकती, क्योंकि प्रतिबद्ध ( अर्थात् साध्य की व्याप्ति से युक्त ) जिस हेतु की उपलब्धि जिस पक्ष में होती है. उस पक्ष में वह हेतु प्रतिबन्धक' को ( अर्थात् जिसका प्रतिबन्ध हेतु में है उस साध्य को) अवश्य ही उपस्थित करेगा । उसमें साध्य की दूसरे प्रकार से उपपत्ति के द्वारा
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