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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
गुण प्रत्यक्ष
न्यायकन्दली
अत्यन्ततापे सत्युदकपरिक्षयात् । नापि लङ्घनाभ्यासस्य स्वाश्रये विशेषाधायकत्वमस्ति, निरन्वयविनष्टे पूर्वलङ्घने लङ्घनान्तरस्य बलान्तरात् प्रयत्नान्तरादध्यपूर्ववदुत्पत्तेः। अत एव त्रिचतुरोत्प्लवपरिश्रान्तस्य लङ्घनं पूर्वस्मादपचीयते, सामर्थ्य परिक्षयात्। बुद्धिस्तु स्थिराश्रया स्वाश्रये विशेषमाधत्ते, प्रथममगृहीतार्थस्य पुनः पुनरभ्यस्यमानस्य ग्रहणदर्शनात् । तस्याः पूर्वपूर्वाभ्यासाहिताधिकाधिकोत्तरोत्तरविशेषाधानक्रमेण दीर्घकालादरनरन्तर्येण सेविताया योगजधर्मानुग्रहसमासादितशक्तेः प्रकर्षपर्यन्तप्राप्ति नुपपत्तिमती।
यत् पुनरत्रोक्तम्, योगिनोऽतीन्द्रियार्थद्रष्टारो न भवन्ति, प्राणित्वात्, अस्मदादिवत् तद्यदि पुरुषमात्र पक्षीकृत्योक्तं तदा सिद्धसाधनम्, पुरुषविशेषश्च परस्यासिद्धः, सिद्धश्चेभिग्राहकप्रमाणविरुद्धमनुमानम् ।
अथोच्यते-प्रसङ्गसाधनमिदम्, प्रसङ्गसाधनं च न स्वपक्षसाधनायोपादीयते, किन्तु परस्यानिष्टापादनार्थम् । परानिष्टं च तदभ्युपगमसिद्धैरेव धर्मादिभिः
तक हो सकता है। जैसे सुवर्ण में पुटपाक से आनेवाली शुद्धता स्वर्ण के पूर्ण रक्त वर्ण होने तक जाती है। जल की गर्मी का कोई स्थिर आश्रय नहीं है जहाँ किया गया उसका अभ्यास चरम सीमा तक हो सके क्योंकि अत्यन्त ताप के बाद तो जल का नाश ही हो जाता है। इसी तरह लङ्घन के अभ्यास में भी वह सामर्थ्य नहीं है, जिससे कि कूदनेवाले में कूदने की विशेष क्षमता को उत्पन्न कर सके, क्योंकि एक लङ्घन के पूर्ण विनष्ट हो जाने पर ही पूर्ण दूसरे लङ्घन की उत्पत्ति दूसरे बल और प्रयत्न से होती है ! यही कारण है कि तीन चार धार कुदने के बाद कूदने वाले का सामर्थ्य घट जाने के कारण आगे का कूदना कुछ न्यून ही हो जाता है । किन्तु बुद्धि का आश्रय तो स्थिर है, अतः अभ्यास के द्वारा अपने आश्रय में वह 'विशेष' का आधान कर सकती है, क्योंकि देखा जाता है कि जो विषय पूर्ण अज्ञात रहता है, अभ्यास से उसका भी विशेष प्रकार का ज्ञान होता है। अतः योगजनित धर्म के अनुग्रह से विशेष शक्तिशालिनी बुद्धि के प्रकर्ष की अत्यन्त उत्कृष्ट परिणति होने में कोई बाधा नहीं है। क्योंकि वह उसके पहिले पहिले के अभ्यास से आगे आगे के ज्ञानों में विशेष का आधान करती रहती है, यदि बहुत दिनों तक बिना बीच में छोड़े हुए आदर पूर्वक उसकी सेवा की जाय ।
जो सम्प्रदाय (मीमांसक लोग) यह अनुमान उपस्थित करते हैं कि (प्र.) योगीगण भी हमलोगों की तरह प्राणी हैं, अतः वे भी अतीन्द्रिय विषयों को नहीं देख सकते । (उ०) उनसे इस प्रसङ्ग में पूछना है कि इस अनुमान में सभी पुरुष पक्ष हैं या विशेष प्रकार के पुरुष ? यदि सभी पुरुषों को पक्ष करें तो उक्त अनुमान में सिद्धसाधन
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