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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[गुणे प्रत्यक्ष
प्रशस्तपादभाष्यम् सामान्यविशेषज्ञानोत्पत्तावविभक्तमालोचनमा प्रत्यक्षं प्रमाणम्, प्रत्यक्षात्मक ज्ञान ही ( उक्त प्रत्यक्ष प्रमाण की फलरूप ) प्रमिति है। जिस समय उक्त ( सत्तारूप ) सामान्य और (द्रव्यत्वादि ) विशेष विषयक निर्विकल्पक ज्ञान ही प्रमितिरूप से ( फलरूप से ) इष्ट हो, उस समय (आलोच्यते ज्ञायते अर्थोऽनेन' इस व्युत्पत्ति के अनुसार ) केवल 'आलोचन अर्थात् ( ज्ञान से
न्यायकन्दली विशेषणज्ञानादिलक्षणे विशेष्यज्ञानादिलक्षणा प्रमा भवत्येवेत्यतिशयः। प्रमेया द्रव्यादयः पदार्थाः, द्रव्यादयश्चत्वारः पदार्थाः प्रमेयाः प्रमितिविषयाः प्रमितौ जातायां तेषु हानादिव्यवहारः प्रवर्तत इत्यर्थः । प्रमाता आत्मा, बोधाश्रयत्वात् । प्रमितिद्रव्यादिविषयं ज्ञानम्, यदा निर्विकल्पकं सामान्यविशेषज्ञानं प्रमाणम्, तदा द्रव्यादिविषयं विशिष्टं ज्ञानं प्रमितिरित्यर्थः । यदा निविकल्पकं सामान्यविशेषज्ञानमपि प्रमारूपमर्थप्रतीतिरूपत्वात्, तदा तदुत्पत्तावविभक्तमालोचनमात्र प्रत्यक्षम्। आलोच्यतेऽनेनेत्यालोचनमिन्द्रियार्थसन्निकर्षस्तन्मात्रम्। अविभक्तं केवलं ज्ञानानपेक्षमिति यावत् । सामान्यविशेषज्ञानोत्पत्तौ प्रमाणम्, विशेष्यज्ञानोत्पत्तावपीन्द्रियार्थसन्निकर्षः
यद्यपि होती है, किन्तु होती ही नहीं है। विशेषणज्ञान रूप निर्विकल्पक ज्ञान के रहने पर (विशेषणविशिष्ट ) विशेष्य ज्ञानरूप प्रमा अवश्य होती है, अतः वही प्रमाण (अर्थात् प्रमा का साधकतम ) है । यही और कारणों से इसमे 'विशेष' है। 'प्रमेया द्रव्यादयः पदार्थाः' अर्थात् द्रव्यादि (द्रव्य, गुण, कर्म और सामान्य ये) चार पदार्थ प्रत्यक्ष के 'प्रमेय' हैं, अर्थात् प्रमाज्ञान के विषय हैं । अभिप्राय यह है कि ( उक्त विशिष्ट ) प्रमाज्ञान के होने पर ही हानोपानादि के व्यवहार होते हैं। आत्मा प्रमा ज्ञान का आश्रय है, अतः वह 'प्रमाता' है। प्रमिति है द्रव्यादिविषयक ज्ञान । अभिप्राय यह है कि जिस समय सामान्य और विशेष का निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण है, उस समय द्रव्यादि विषयक विशिष्ट ( सविकल्पक ) ज्ञान ही फलरूपा प्रमिति है। जिस सामान्य और विशेष विषयक निर्विकल्पक ज्ञान को ही अर्थ की प्रतीति रूप होने के कारण (फलरूप) प्रमा मानते हैं, उस समय उस प्रमा ज्ञान की उत्पत्ति में 'अविभक्त आलोचन मात्र' ही प्रत्यक्ष प्रमाण है । 'आलोच्यते अनेन' इस व्युत्पत्ति के अनुसार इस वाक्य के 'अलोचन' शब्द का अर्थ है इन्द्रिय और अर्थ का संनिकर्ष। तन्मात्रमविभक्तम्' अर्थात् ज्ञान से अनपेक्ष केवल इन्द्रिय और अर्थ का संनिकर्ष ही सामान्य विशेष विषयक (निर्विकल्पक) ज्ञान का (उत्पा
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