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प्रकरणम्]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली दर्शनाज्ज्ञानात् सम्यग् जायमानं लैङ्गिकमिति वाक्यार्थः । तस्य च ज्ञानस्य सम्यग्जातीयस्य यथार्थपरिच्छेदकतयोत्पादः, सर्वधियां यथार्थपरिच्छेदकत्वस्य कुलधर्मत्वात् । संशयविपर्ययौ तावद्यथासावर्थो न तथा परिच्छिन्तः । स्मृतिरप्यर्थपरिच्छेदिका न भवति, अनुभवपारतन्त्र्यादिति वक्ष्यामः । अन्ये तु विद्याधिकारेण संशयविपर्ययौ व्युदस्यन्ति । अनर्थजायाश्च स्मृतेव्यु दासाथ 'तद्धि द्रव्यादिषु पदार्थेषूत्पद्यते' इत्यावर्त्तयन्ति । तदयुक्तम्, वाक्यलभ्येऽर्थे प्रकरणस्यानपेक्षणात्, अनर्थजत्वात्, स्मृतियुदासे चातीतानागतविषयस्य लैङ्गिकज्ञानस्यापि व्युदासप्रसङ्गात् । 'लिङ्गदर्शनात् संजायमानम्' के बाद 'ज्ञानम' पद का अध्याहार स्वभावतः प्राप्त है। ( अतः संस्कार को ज्ञानरूप न होने के कारण अतिव्याप्ति दोष नहीं है)। ('सञ्जायमानम्' इस पद में प्रयुक्त ) 'सम्' शब्द 'सम्यक्' अर्थ में प्रयुक्त है, (अतः 'लिङ्गदर्शन से उत्पन्न 'सम्यक्' ज्ञान ही अनुमान है' ऐसा लक्षण निष्पन्न होने के कारण) संशय, विपर्यय एवं स्मृति इन तीनों की अनुमान से व्यावृत्ति हो जाती है । क्योंकि ये ( ज्ञान होते हुए भी) सम्यग् ज्ञान अर्थात् यथार्थ ज्ञान नही हैं। सभी सम्यग् ज्ञानों का यह स्वभाव है कि अपने विषयों को उनके यथार्थ स्वरूप में उपस्थित करें, चूंकि अपने विषयों को यथार्थरूप में उपस्थित करना सभी ( यथार्थ ) ज्ञानों का मौलिक धर्म है। संशय और विपर्यय तो अपने विषयों को उसी रूप में उपस्थित नहीं करते जो कि उनका यथार्थ स्वरूप है । स्मृति के प्रसङ्ग में हम आगे कहेंगे कि स्मृति चूंकि अनुभव के अधीन है अतः वह अपने विषयों की परिच्छेदिका नहीं है। (पूर्वानुभव ही स्मृति के विषयों का परिच्छेदक है)। कोई कहते हैं कि यह विद्या ( यथार्थ ज्ञान ) का प्रकरण है, अतः प्रकरण के बल से बुद्धि विद्या रूप ही होगी, इसी से संशय और विपर्यय इन दोनों की अनुमिति से व्यावृत्ति हो जाएगी। स्मृति में अनुमिति लक्षण की अतिव्याप्ति के लिए वे लोग (प्रत्यक्ष प्रकरण में पठित ) 'तद्धि द्रव्यादिषु पदार्थेषूत्पद्यते' इस वाक्य की यहाँ आवृत्ति करते हैं । अतः स्मृति अर्थजनित न होने के कारण अनुमिति के अन्तर्गत नहीं आती। किन्तु ये (दोनों ही बातें) असङ्गत हैं, क्योंकि वाक्य के द्वारा जिस अर्थ का लाभ हो सकता है, उसे प्रकरण की अपेक्षा नहीं होती। एवं अर्थजनित न होने के कारण यदि स्मृति की व्यावृत्ति करें, तो फिर भुत और भविष्य विषयक अनुमान की भी अनुमिति से व्यावृत्ति हो जायगी।
१- अभिप्राय यह है कि संशय और विपर्यय में अनुमिति लक्षण की अतिव्याप्ति हटानी है। 'सञ्जायमानम्' पद घटक 'सम्' शब्द को सम्यगर्थक मान लेने से भी उक्त
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