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মঙ্ক )
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली शक्यमापादयितुम् । तत्र प्रमाणेन स्वप्रतीतिरनपेक्षणीया, नद्येवं परः प्रत्यवस्था. तुमर्हति 'तवासिद्धा धर्मादयो नाहं स्वसिद्धष्वपि तेषु प्रतिपद्ये, इति ।
अत्र ब्रूमः-किं प्रसङ्गसाधनमनुमानं तदन्यद्वा ? यद्यन्यत् क्वाप्युक्तलक्षणेषु प्रमाणेष्वन्तर्भावो वर्णनीयः, वक्तव्यं वा लक्षणान्तरम् । यदि त्वनुमानमेव, तदा स्वप्रतीतिपूर्वकमेव प्रवर्तते, स्वनिश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पिपादयिषया सर्वस्य परार्थानुमानस्य प्रवृत्तः। अन्यथा गगनकमलं सुरभि, कमलत्वात्, क्रीडासरःकमलवदोष होगा, क्योंकि सभी पुरुषों को अतीन्द्रिय अर्थों का द्रष्टा तो कोई भी नहीं मानता। यदि विशेष प्रकार के पुरुष में अतीन्द्रियार्थ दर्शन के अभाव की सिद्धि करना चाहते हैं तो फिर इसमें आपके मत से पक्षासिद्धि होगी, क्योंकि पक्ष का उसके असाधारण धर्म के साथ निश्चित रहना अनुमान के लिए आवश्यक है। मीमांसकों के मत में 'विशेष प्रकार के पुरुष सिद्ध नहीं हैं। यदि उनकी सिद्धि करना चाहेंगे तो उस (धर्मितावच्छेदकविशिष्ट ) धर्मी के ग्राहक प्रमाण से ही योगियों में अतीन्द्रियार्थ दर्शनरूप 'विशेष' की भी सिद्धि हो जाएगी, जिससे उक्त अनुमान बाधित हो जाएगा। यदि यह कहें कि (प्र. ) ( उक्त अनुमान तो ) प्रसङ्ग (आपत्ति) साधन के लिए है । प्रसङ्ग के साधन का उपन्यास तो दूसरों के मत के खण्डन के लिए ही किया जाता है, अपने मत के साधन के लिए नहीं, दूसरों (प्रतिपक्षी) के अनभिमत धर्मों की आपत्ति तो उनके मत से सिद्ध धर्मादि के द्वारा भी दी जा सकती है। यह आवश्यक नहीं है कि जिसकी आपत्ति देनी है उसके विषयों को अपने मत के अनुसार प्रमाणों के द्वारा भी सिद्ध होना ही चाहिए क्योंकि प्रतिपक्षी यह आरोप कर ही नहीं सकते कि तुम्हारे मत के अनुसार जिन धर्मों की उपपत्ति नहीं हो सकती, उन धर्मों की केवल अपने मत से सिद्ध पदार्थों में प्रतीति मुझे नहीं होती।
(उ) इस प्रसङ्ग में हम ( सिद्धान्तियों) लोगों का कहना है कि जिसे आप 'प्रसङ्गसाधन' कहते हैं, वह अनुमान ही है या और कुछ ? यदि अनुमान नहीं है, तो फिर कथित प्रमाणों में ही उसका अन्तर्भाव करना होगा या फिर इसके लिए कोई दूसरा ही लक्षण करना पड़ेगा ? यदि अनुमान ही है तो फिर पहिले उसके विषयों का ज्ञान अवश्य चाहिए। क्योंकि इस स्वज्ञान के द्वारा ही अनुमान की उत्पत्ति होती है। सभी परार्थानुमानों में इच्छा से ही प्रवृत्ति होती है। जो कोई भी परार्थानुमान में प्रवृत्त होता है. सबकी यही इच्छा रहती है कि मेरे सदृश ज्ञान का उत्पादन बोद्धा में हो। अन्यथा ( यदि पक्षतावच्छेदक रूप से पक्ष का उभयसिद्ध ज्ञान न रहने पर भी अनुमान प्रमाण हो तो) यदि कोई परार्थानुमान का प्रयोग करनेवाला पुरुष कमल की उत्पत्ति गगन में मानकर इस अनुमान का प्रयोग करे कि गगन का कमल सरोवर के कमल की तरह ही सुगन्धित है, क्योंकि वह भी कमल है, तो इसे भी प्रमाण मानना पड़ेगा। ( अत: 'योगिनो अतीन्द्रियार्थद्रष्टारो न भवन्ति'
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