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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् गुणे प्रत्यक्ष
न्यायकन्दली स्वात्मान्तरेषु स्वात्मन आत्मान्तरेषु परकीयेष, आकाशे दिशि काले वायौ परमाणुमनस्सु तत्समवेतेषु गुणादिषु समवाये चावितथमविपर्यस्तं स्वरूपदर्शनं भवति । अस्मदादिभिरात्मा सर्वदैवाहं ममेति कर्तृत्वस्वामित्वरूपसंभिन्नः प्रतीयते, उभयं चैतच्छरीराधुपाधिकृतं रूपं न स्वाभाविकमत एव अहं ममेति, प्रत्ययो मिथ्यादृष्टिरिति गीयते, सर्वप्रवादेषु विपरीतरूपग्राहकत्वात् । स्वाभाविकं तु यदस्य स्वरूपं तद्योगिभिरालोक्यते, यदा हि योगी वेदान्तप्रवेदितमात्मस्वरूपमहं तत्त्वतोऽनुजानीयामित्यभिसन्धानाद् बहिरिन्द्रियेभ्यो मनः प्रत्याहृत्य क्वचिदात्मदेशे नियम्यैकाग्रतयात्मानुचिन्तनमभ्यस्यति, तदास्य तत्त्वज्ञानसंवर्तकधर्माधानक्रमेणाहङ्कारममकारविनिर्मुक्तमात्मतत्त्वं स्फुटीभवति । यदा तु परात्माकाशकालादिबुभुत्सया तदनुचिन्तनप्रवाहमभ्यस्यति, तदास्य परात्मादितत्त्वज्ञानानुगुणोऽचिन्त्यप्रभावो धर्म उपचीयते, तबलाच्चान्तःकरणं बहिः शरीरान्निर्गत्य परात्मादिभिः संयुज्यते । तेषु संयोगात्, संयुक्तसमवायात् तद्गुणादिषु, संयुक्तसमवेतसमवायात्
योगी ( अपने लक्ष्य असम्प्रज्ञात से ) च्युत होने पर भी 'योग' की अथात् असम्प्रज्ञात समाधि की योग्यता के कारण 'योगी' कहलाते हैं। सम्प्रज्ञात समाधि के समय योगियों के (तत्त्व के) आवरक मल की सत्ता मर्वथा क्षीण नहीं रहती है, अतः उन्हें अतीन्द्रिय अर्थों का प्रत्यक्ष नहीं होता है। यही बात 'युक्तानाम्' इत्यादि से कहा गया है । 'युक्तों' को अर्थात् 'सम्माज्ञात' समाधि से युक्त योगियों को इस योग से उत्पन्न धर्म के अनुग्रह से युक्त मन के द्वारा अपनी आत्मा और अपनी आत्मा से भिन्न आत्माओं का अर्थात् अपनी आत्मा से भिन्न दूसरों की आत्माओं का, आकाश, काल, वायु, परमाणु और मन इन सबों का और इन सबों में रहने वाले गुणादि और समवाय का ‘अवितथ' अर्थात् विपर्यय रहित (यथार्थ) ज्ञान होता है। अस्मदादि को आत्मा की प्रतीति-कर्तृत्व एवं स्वामित्व रूप से ही बराबर होती है । म दोनों ही शरीर रूप उपाधि मूलक होने के कारण आत्मा के स्वाभाविक धर्म नहीं हैं । अत तन्मूलक 'अहम्, मम' इत्यादि आकार की आत्मा की सभी प्रतीतियां सभी मतों के अनुसार आत्मा के स्वरूप के विरुद्ध धर्म विषयक होने के कारण 'मिथ्याष्टि कही जाती हैं। आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप को केवल योगिगण ही देख पाते हैं। जिस समय ये गगण उपनिषदों में कथित आत्मा के स्वरूप को 'मैं यथार्थ रूप से जानू' इस संकल्प के द्वारा बाह्य विषयों से मन को खींचकर आत्मा के किसी भी प्रदेश में लगाकर आत्मचिन्तन का अभ्यास करते हैं, उस समय तत्त्वज्ञान के सम्पादक धर्म के उत्पादन के क्रम से अहङ्कार और ममकार से विनिमुक्त आत्मा को तत्व प्रकाशित होता है। जिस समय दूसरे की आत्मा एवं कलादि वस्तुओं को जानने की इच्छा से उनके चिन्तन के प्रयास का अभ्यास योगिगण करते हैं, उस समय योगियों में वह उत्कृष्ट धर्म बढ़ने लगता है, जिसका प्रभाव हम
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