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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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[ गुणे प्रत्यक्ष
भावद्रव्यत्वगुणत्व कर्मत्वादीनामुपलभ्याधारसमवेतानामाश्रयग्राहकैरिन्द्रियै
ग्रहणमित्येतदस्मदादीनां
प्रत्यक्षम् । अस्मद्विशिष्टानां तु योगिनां संयोग से प्रत्यक्ष होता है । ( उन्हीं ) भाव ( सत्ता ) द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्वादि का प्रत्यक्ष उनके आश्रयीभूत वस्तुओं के ग्राहक इन्द्रियों से होता है, जिनके आश्रय प्रत्यक्ष के द्वारा ग्रहण के योग्य हों ।
न्यायकन्दली
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अपरे तु सर्वत्र यथासम्भवं संयोगसमवाययोरेव हेतुत्वादवान्तरसम्बन्धकल्पनां नेच्छन्ति, ईदृशो हि तेषां भावानां स्वभावो यदेषामन्यसन्निकर्षादेव ग्रहणम् । अतिप्रसङ्गश्च नास्ति, स्वायय प्रत्यासत्ते नियामकत्वात 1
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उपसंहरति- एतदस्मदादीनां प्रत्यक्षमिति । अस्मदादीनामयोगिनामित्यर्थः । योगिप्रत्यक्षमाह --- अस्मद्विशिष्टानां त्विति । योगः समाधिः । स द्विविध:-- सम्प्रज्ञातोऽसम्प्रज्ञातश्च । सम्प्रज्ञातो धारकेण प्रयत्नेन किसी सम्प्रदाय के लोग प्रत्यक्ष के लिए (१) संयोग और ( २ ) समवाय इन दो ही सम्बन्ध को आवश्यक मानते हैं एवं (संयुक्त समवायादि) अवान्तर सम्बन्ध की कल्पना को निरर्थक समझते हैं अर्थात् द्रव्य में चक्षु का जो संयोग है, उसीसे द्रव्य की तरह उसमें रहनेवाले सामान्य गुण एवं कर्मादि के भी बोध होंगे, एवं समवाय सम्बन्ध से शब्द एवं उसमें रहने वाले शब्दत्वादि सामान्यों का भी बोध होगा । कुछ वस्तुओं का यह स्वभाव स्वीकार करेंगे कि दूसरे के साथ के संनिकर्ष से भी उनका प्रत्यक्ष होता है। संयोग संनिकर्ष से यदि घटत्व या घट रूप का प्रत्यक्ष हो सकता है, तो फिर उसी सम्बन्ध से शब्द का भी प्रत्यक्ष हो ( क्योंकि दोनों में ही संयोग संनिकर्ष की असत्ता समान रूप से है) इस पक्ष में उक्त अतिप्रसङ्गों की भी सम्भावना नहीं है, क्योंकि आश्रय में संनिकर्ष का रहना नियामक होगा ( अर्थात् इस पक्ष में ऐसा नियम है कि इन्द्रिय का संयोग संनिकर्ष जिस द्रव्य के साथ रहेगा उसमें रहनेवाले सामान्य, गुण या कर्म का हो उस संयोग संनिकर्ष से भान होगा । शब्द के आश्रय आकाश रूप द्रव्य में चक्षु का प्रत्यक्षजनक सोनकर्ष नहीं है। इसी प्रकार समवाय में भी समझना चाहिए ) । 'एतदस्मदादीनां प्रत्यक्षम् इस वाक्य के द्वारा (अस्मदादि के
प्रत्यक्ष का ) उपयोगियों से भिन्न
संहार करते हैं । उस वाक्य में प्रयुक्त 'अस्मदादि' शब्द का अर्थ है जीव | 'अस्मद्विशिवनाम्' इत्यादि संदर्भ के द्वारा योगियों के प्रत्यक्ष का निरूपण करते हैं । 'योग' शब्द का अर्थ है समाधि | यह योग ( १ ) सम्प्रज्ञात और ( २ ) असम्प्रज्ञात भेद से दो प्रकार का है धारक प्रयत्न के द्वारा आत्मा के किसी प्रदेश में नियोजित मन का और तत्त्वज्ञान की इच्छा से युक्त आत्मा का संयोग हो 'सम्प्रज्ञातयोग, है । वश किए हुए मन का बिना किसी विशेष अभिलाषा के पहिले ही विना विचारे हुए